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भूले-बिसरे फिरोज गांधी: असाधारण सांसद के स्मरण के लिए भारत को काफी कुछ करने की दरकार है

भूले-बिसरे फिरोज गांधी: असाधारण सांसद के स्मरण के लिए भारत को काफी कुछ करने की दरकार है
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आठ सितंबर को फिरोज गांधी की पुण्यतिथि थी, लेकिन शायद ही किसी और यहां तक कांग्रेसी नेताओं ने उनका स्मरण किया हो। 12 सितंबर को उनकी जन्म तिथि है। देखना है कि तब भी उनका स्मरण होता है या नहीं? जो भी हो, ऐसा विरले ही देखने को मिलता है कि सत्तापक्ष का कोई सांसद अपनी ही सरकार के खिलाफ भ्रष्टाचार के खुलासे और पारदर्शिता लाने के लिए अड़ जाए। फिरोज गांधी कांग्रेस पार्टी के ऐसे ही सांसद थे। वह भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज बुलंद करने वाले और नि:संदेह भारत के सबसे पहले बेहतरीन खोजी सांसद थे।

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फिरोज गांधी का स्मरण

देश में उनकी स्मृति में कोई खास आयोजन नहीं होते, जबकि हमें कई बातों के लिए फिरोज गांधी का अवश्य ही स्मरण करना चाहिए। मसलन स्वतंत्रता संग्राम में उनकी भागीदारी जिसके चलते उन्हें कई बार जेल जाना पड़ा। सार्वजनिक जीवन में शुचिता एवं पारदर्शिता के लिए बड़ी मेहनत से की गई उनकी तफ्तीश और प्रतिबद्धता को भी याद करना होगा जिसके चलते नेहरू सरकार में वित्त मंत्री टीटी कृष्णमाचारी को अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा। बीमा कारोबार का राष्ट्रीयकरण हुआ और एक ऐसा कानून बना जिसमें मीडिया को संसदीय कार्यवाही की रिपोर्टिंग के मामले में मानहानि और दूसरे अभियोगों को लेकर राहत मिली।

 

सोनिया गांधी के ससुर फिरोज गांधी

 

चूंकि कांग्रेस पार्टी कभी उनका नाम नहीं लेती तो शायद युवा पीढ़ी को यह नहीं मालूम कि वह इंदिरा गांधी के पति, सोनिया गांधी के ससुर और राहुल गांधी के दादा थे। यह 1920 के दशक के आखिरी दौर की बात है जब कमला नेहरू से प्रेरित होकर फिरोज स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल हुए। उन्होंने भूमिगत रहकर भी आजादी के लिए अभियान चलाया। 1950 में वह अस्थाई संसद के सदस्य बने और 1952 एवं 1957 में लोकसभा के लिए चुने गए।

 

फिरोज का संसद में पहला भाषण

 

सांसद के रूप में फिरोज शुरुआत में बहुत मुखर नहीं थे, लेकिन दिसंबर 1955 में लोकसभा में अपने पहले भाषण के साथ ही उन्होंने सदन में अपनी धाक जमा ली। जब वह बीमा (संशोधन) विधेयक पर बोल रहे थे हर कोई अपनी सीट से चिपककर उन्हें एकटक सुन रहा था। अपने भाषण से उन्होंने सदन को जकड़कर रख दिया। निजी बीमा कंपनियों की संदिग्ध गतिविधियों का भंडाफोड़ करते हुए उन्होंने जीवन बीमा कारोबार के राष्ट्रीयकरण के पक्ष में पुख्ता दलीलें पेश कीं।

 

सार्वजनिक धन के बेजा खर्च के खिलाफ थे फिरोज

 

उन्होंने सार्वजनिक धन के बेजा खर्च को रोकने की पुरजोर तरीके से पैरवी की जो पैसा इन कंपनियों में निवेश किया जा रहा था। जब उन्होंने अपना भाषण समाप्त किया तब तक प्रत्येक सदस्य को यह महसूस हुआ कि निजी बीमा कंपनियां अपराधी हैं। उनके तर्क इतने अकाट्य थे कि दो महीनों के भीतर ही राष्ट्रपति ने बीमा कंपनियों के राष्ट्रीयकरण से जुड़ा अध्यादेश जारी कर दिया। फिरोज का भाषण निजी बीमा कंपनियों के लिए ताबूत में आखिरी कील साबित हुआ। राष्ट्रीयकरण के साथ ही जीवन बीमा निगम यानी एलआइसी अस्तित्व में आई।

 

वित्त मंत्री का ढुलमुल जवाब

 

एक सांसद के लिए यह विशिष्ट उपलब्धि थी, लेकिन अभी और भी कुछ बाकी था। 1957 की दूसरी छमाही में उन्हें वित्त मंत्रालय में घोटाले की भनक लगी। उनके सुनने में आया कि एलआइसी ने एकाएक एचडी मूंदड़ा की कंपनियों के शेयर खरीदे। ये शेयर भी ऊंची कीमतों पर खरीदे गए थे। मूंदड़ा कांग्रेस के करीबी कारोबारी थे। फिरोज ने प्रश्न काल के दौरान इस मुद्दे को उठाया और इस पर विशेष चर्चा की मांग की। वित्त मंत्री के ढुलमुल जवाब ने फिरोज को और सतर्क कर दिया। उन्होंने कहा, ‘मेरे भीतर उथल-पुथल ने मुझे इस मुद्दे को उठाने पर मजूबर किया। इतने बड़े पैमाने पर होने वाली चीजों को लेकर मौन साधना एक अपराध बन जाता है।’

मूंदड़ा संदिग्ध रिकॉर्ड वाले कारोबारी थे

मूंदड़ा संदिग्ध रिकॉर्ड वाले कारोबारी थे जिन्होंने कांग्रेस को बड़ा चुनावी चंदा दिया था। जब वह वित्तीय संकट में फंसे तो चाहते थे कि नेहरू सरकार उन्हें उबार ले। उन्होंने सरकार से उनकी कंपनियों में करोड़ो रुपये के शेयर खरीदने के लिए कहा। उनकी सभी कंपनियों की हालत खस्ता थी, फिर भी सरकार एलआइसी के जरिये शेयर खरीदारी के लिए तैयार हो गई। इसी दौरान मूंदड़ा ने कलकत्ता स्टॉक एक्सचेंज में अपनी कंपनियों के शेयर खरीदकर कृत्रिम रूप से उनका भाव बढ़ा दिया। ऐसे में जब एलआइसी ने शेयर खरीदे तो उनके दाम उससे ज्यादा बढ़ गए थे जब मूंदड़ा ने सरकार से मदद की गुहार लगाई थी। यही एलआइसी-मूंदड़ा घोटाला था।

सरकार के पास कोई ठोस जवाब नहीं था

सरकारी गड़बड़ का खुलासा करने के लिए फिरोज गांधी ने एक पखवाड़े के दौरान इन कंपनियों के शेयरों के भाव की पड़ताल की। वित्त मंत्री टीटी कृष्णमाचारी ने एलआइसी द्वारा अपने पोर्टफोलियो का विस्तार करने की दुहाई देते हुए इस सौदे का बचाव करने की कोशिश की, लेकिन फिरोज इससे आश्वस्त नहीं हुए। उन्होंने-आपने मूंदड़ा की कंपनियों पर ही नजरें इनायत क्यों कीं और क्यों शेयर ऊंचे भाव पर खरीदे गए? सार्वजनिक धन को ऐसे कैसे खर्च किया जा सकता है? एलआइसी द्वारा खरीदारी के बाद ये शेयर क्यों गिरावट के शिकार हो गए? जैसे कई तल्ख सवाल किए। सरकार के पास कोई ठोस जवाब नहीं था। नेहरू को जांच आयोग गठित करने पर मजबूर होना पड़ा। जांच में वित्त मंत्री को नैतिक रूप से दोषी पाया गया। फिर उन्हें इस्तीफा देना पड़ा।

फिरोज गांधी की उपलब्धियां

अपने संसदीय करियर में फिरोज गांधी की कई उपलब्धियां रहीं। इनमें संसदीय रिपोर्टिंग के दौरान प्रेस को सांसदों के कोप से बचाने वाला कानून बनाना भी शामिल है। पत्रकारों ने उन्हें बताया था कि संसद में मुखर रूप से बोलने के लिए सांसदों को तो विशेषाधिकार हासिल हैं वहीं पत्रकारों को संसदीय रिपोर्टिंग के दौरान मानहानि और अन्य कानूनी परेशानियों का जोखिम झेलना पड़ता है। लोकतंत्र और प्रेस की स्वतंत्रता में अपनी अगाध आस्था के चलते उन्हें महसूस हुआ कि संसदीय रिपोर्टिंग के दौरान मीडिया के समक्ष कोई बाधा नहीं होनी चाहिए और लोगों को विधायी कार्यवाही का वास्तविक ब्योरा मिलना चाहिए।

फिरोज गांधी एक सच्चे जनप्रतिनिधि

उन्होंने इससे जुड़ा विधेयक संसद में रखा। इन सभी मामलों में फिरोज गांधी ने तथ्यों और आंकड़ों पर अपनी पकड़ से लगभग अकेले ही इन्हें तार्किक परिणति तक पहुंचाया। तमाम ऐसे कारक थे जिन्होंने फिरोज गांधी को सच्चा जनप्रतिनिधि बनने के लिए प्रेरित किया। एक तो विद्रोही स्वभाव और जन कल्याण एवं लोकतंत्र के लिए उनकी प्रतिबद्धता थी। दूसरा उन सूचनाओं को जुटाने की कर्मठता जिससे वे अपने मामलों की पैरवी करते और सरकार में अपने सूत्रों से बेहद सहजता से जुड़ते। अंत में उनके संसदीय कौशल की बारी आती थी। यही वजह थी कि उनके साथी सांसद और नेहरू सरकार में मंत्री उन्हें ‘गूढ़ जानकारियां रखने वाला खतरनाक शख्स’ करार देते थे। ऐसे असाधारण सांसद के स्मरण के लिए भारत को काफी कुछ करने की दरकार है।


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