नगाड़ों के प्रति लोगों का मोह हो रहा कम, नगाड़ा निर्माता-विक्रेता बेहाल
रायपुर। फागुन के महीने में जब तक नगाड़ों की थाप और फाग की मस्ती नहीं होती, होली पर्व अधूरा होता है। लेकिन आधुनिकता की दौड़ में सरपट भाग रहे युवा वर्ग को इस बात से फर्क नहीं पड़ता। युवा वर्ग कानफोडू डीजे की संस्कृति में जी रहा है तो वहीं पुरानी पीढिय़ों के कान अब भी फाग और नगाड़ों की थाप सुनने के लिए तरस रहा है। पीढिय़ों से अपनी संस्कृति को सहेजने वाले नगाड़ा निर्माता और विक्रेता भी गिनती के रह गए हैं। साल-दर-साल इनकी संख्या कम होती जा रही है। इस बात में कोई आश्चर्य नहीं कि आने वाली पीढिय़ों को नगाड़ा केवल तस्वीरों में देखने को मिलेगी।
होली के पर्व के अलावा लोक धुनों में बजने वाले नगाड़े छत्तीसगढ़ में परंपरागत रूप से बनाए जाते हैं नगाड़े बनाने में पशु के चमड़े और मिट्टी के मटका नुमा संरचना का उपयोग होता है प्रतिवर्ष राजधानी में बसंत पंचमी के बाद गंजपारा चौक में नगाड़े बिकना प्रारंभ हो जाते थे अब यह नगाड़े रायपुर में गंज पारा चौक के अलावा कालीबाड़ी तिराहे सहित राजधानी के कुछ अन्य ऐसे मोहल्लों में बिकते हैं जहां परंपरागत रूप से इसे बजाने में रुचि रखने वाले हो। ऐसे ही इस परंपरागत वाद्य नगाड़े को राजधानी में बेचने प्रवीण कुमार कटीले डोंगरगढ़ से आते हैं उनका कहना है कि उनका परिवार बरसों से परंपरागत रूप से नगाड़ों का निर्माण करता है और साल में एक बार राजधानी पहुंचते हैं। प्रवीण बताते हैं उनके पास 100 से शुरू होकर 22 सौ रुपए जोड़ी तक के नगाड़े हैं। प्रवीण का कहना है वह और उनका परिवार साल भर नगाड़े के निर्माण कार्य में लगे रहते हैं। शिक्षा दीक्षा के बारे में पूछने पर प्रवीण बताते हैं कि उन्होंने सिर्फ क्लास 9 तक पढ़ाई की है। लेकिन इन्होंने अपने माता-पिता के साथ मिलकर अपने छोटे भाई की पढ़ाई को लगातार जारी रखा। अब छोटा भाई आईटीआई कर चुका है एक प्राइवेट प्रतिष्ठित कंपनी में इलेक्ट्रीशियन के तौर पर काम कर रहा हैं। इनके परिवार के बाकी सदस्य अभी भी नगाड़ा बनाने के काम में लगे हुए हैं इनको रॉ मैटेरियल जो है अपने आसपास के क्षेत्रों से मिलता है। नगाड़ा बनाने में जो सामग्री प्रयुक्त होती पूछने पर बताया कि चमड़े के साथ-साथ कुमारों के द्वारा नगाड़ा के बाहरी का आवरण जो होता है वह बनवाना पड़ता है। आपसी सामंजस्य के साथ कुम्हार इनको इसकी उपलब्धता कराते हैं। यह एक छत्तीसगढ़ के ग्रामीण क्षेत्रों में पौनी पसारी और लघु उद्योगों में आपसी सामंजस्य का एक उत्तम उदाहरण है। नगाड़ा बनाने की लागत इससे होने वाली आय और आगे की योजना के बारे में पूछने पर प्रवीण से हमें पर एक बड़ा निराशाजनक उत्तर मिला की उनके परिवार में पीढिय़ों से चालू यह काम बंद होने के कगार पर है। होली के पारंपरिक परिवार में नई पीढिय़ों की रुचि अब नगाड़ा बजाने अर्थात गाने में नजर नहीं आती। उन्हें राजधानी के फुटपाथ में इसे बेचने में खासी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है आसपास के लोग धमका कर और मुफ्त में छीन कर ले जाते हैं। उन्हें अपने और अपने सामान की सुरक्षा के लिए प्रशासन का संरक्षण भी इस जगह में बैठने नहीं मिल पाता प्रवीण कहते हैं संभवत वह इस होली पर्व में आखरी बार राजधानी नगाड़ा बेचने आए हैं। उनके परिवार में अब यहां ना आने को लेकर विचार विमर्श हो रहा है ।