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आलेख: सरकार क्यों लीज पर देने जा रही है संपत्ति- चंद्रभूषण

आलेख: सरकार क्यों लीज पर देने जा रही है संपत्ति- चंद्रभूषण
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वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने सरकारी संसाधनों को लीज पर देकर अगले चार वर्षों में छह लाख करोड़ रुपये जुटाने की घोषणा की है। नैशनल मॉनिटाइजेशन पाइपलाइन (एनएमपी) नाम की यह योजना इसी साल लाने की बात उन्होंने इस बार के अपने बजट भाषण में कही थी। एनएमपी का सीधा संबंध पिछले साल घोषित नैशनल इन्फ्रास्ट्रक्चर पाइपलाइन (एनआईपी) से है। एनआईपी सौ लाख करोड़ रुपये से ज्यादा की एक बृहद इन्फ्रास्ट्रचर योजना है, जिसको अभी 111 लाख करोड़ रुपये की बताया जा रहा है। दरअसल, मोदी सरकार बहुत बड़े आंकड़ों के जरिये दुनिया को यह संकेत देना चाहती है कि भारत में इन्फ्रास्ट्रक्चर के स्तर पर कुछ वैसा ही घटित हो रहा है, जैसा 1930 के दशक में अमेरिका में हुआ था, या फिर पिछले तीसेक वर्षों में चीन में हुआ है।
क्या पैसा आएगा?
इसके लिए 100 करोड़ रुपये से ऊपर की 7320 ढांचागत परियोजनाओं को एक ही सूची में डाल दिया गया है और इनको अमल में उतारने का काम केंद्र सरकार (39 प्रतिशत), राज्य सरकारों (40 प्रतिशत) और प्राइवेट सेक्टर (21 प्रतिशत) को मिलकर करना है। नैशनल मॉनिटाइजेशन पाइपलाइन इसी के लिए पैसा जुटाने की एक कवायद है। यह योजना अभी घोषित तो हो गई है लेकिन इससे पैसे कितने आएंगे, इसका अंदाजा लगाना मुश्किल है। एनआईपी के लिए सरकारी धन एनएमपी के अलावा सरकारी खजाने और विनिवेश से आना है। इसमें सरकारी खजाने का भरना या खाली रहना अर्थव्यवस्था की गति और उससे होने वाले टैक्सेशन पर निर्भर करता है। लेकिन एनएमपी और विनिवेश से, यानी सरकारी परिसंपत्तियों को निजी उपयोग के लिए देने पर आने वाले पैसों को लेकर कुछ समझ बनानी हो तो पिछले साल के एक आंकड़े पर गौर कर सकते हैं।
सन 2020 के बजट भाषण में वित्त मंत्री ने विनिवेश के जरिये अगले (अभी पिछले) वित्त वर्ष में 2 लाख 10 हजार करोड़ रुपये जुटाने की घोषणा की थी। लेकिन वास्तव में खींच-तानकर यह रकम 19,499 करोड़ रुपये तक पहुंच पाई, जो लक्ष्य का बमुश्किल 9 फीसदी था। इस हकीकत को ध्यान में रखकर ही मौजूदा वित्त वर्ष में विनिवेश का लक्ष्य 1 लाख 75 हजार करोड़ रखा गया। हालात तब से अब तक कुछ सुधरे जरूर हैं, पर इतने नहीं कि इस वित्त वर्ष के बचे हुए सात महीनों में एनएमपी के मद में 88 हजार करोड़ रुपये और जुटाए जा सकें।
तो एक मामला नैशनल मॉनिटाइजेशन पाइपलाइन से जुड़े लक्ष्यों के यथार्थपरक होने से जुड़ा है। लेकिन लोगों में चर्चा इस बात की ज्यादा है कि सरकार इतने लंबे समय में खड़े किए गए महत्वपूर्ण संसाधनों को औने-पौने किसी को भी बेच देने पर आमादा है। विनिवेश के मामले में ऐसा हमने बार-बार होते देखा है। मोदी सरकार इस किस्से को ज्यादा तूल न पकडऩे देने को लेकर सतर्क है लिहाजा वित्त मंत्री ने अपनी प्रेस कॉन्फ्रेंस में जोर देकर कहा कि एनएमपी में ब्राउनफील्ड यानी पहले से खड़े संसाधन प्राइवेट सेक्टर को लीज पर दिए जाएंगे। उन्हें बेचा नहीं जाएगा, उनका स्वामित्व सरकार के ही पास बना रहेगा।
ये संसाधन कौन से हैं? सबसे ज्यादा सड़कें (कुल संभावित रकम का 27 प्रतिशत), फिर रेलवे (25 प्रतिशत), बिजली (15 प्रतिशत), तेल और गैस पाइपलाइनें (8 प्रतिशत) और टेलिकॉम (6 प्रतिशत)। बचे 19 प्रतिशत में हवाई अड्डे, बंदरगाह, गोदाम और स्पोर्ट्स स्टेडियम वगैरह शामिल हैं। ध्यान रहे, इन ढांचागत संसाधनों का काफी बड़ा हिस्सा पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप के तहत बिल्ड-ऑपरेट-ट्रांसफर की शर्तों से बंधा हुआ है। ऐसे मामलों में तो कोई लीज भी नहीं है फिर भी सारा कुछ बिल्ड-ऑपरेट में उलझा रह जाता है, ट्रांसफर की नौबत ही नहीं आती। एक छोटा सा उदाहरण दिल्ली और नोएडा को जोडऩे वाले एक पुल का ले लें।
इसे बनाने वाली कंपनी ने अपनी लागत और मुनाफा काफी पहले निकाल लिया, फिर नोएडा टोलब्रिज नाम से शेयर बाजारों में अपना रजिस्ट्रेशन भी करा लिया। सड़क और पुल का मालिकाना सौंपने की बात यूपी सरकार की ओर से ही आ सकती थी, लेकिन कंपनी ने उसी को मैनेज कर लिया था। साल दर साल उसकी टोल वसूली चलती जा रही थी। हारकर कुछ नागरिक मामले को अदालत में ले गए तो वहां भी मुकदमा लंबा खिंचने लगा। फिर एक दिन फैसला आ गया कि कंपनी अपनी वसूली पूरी कर चुकी है, अब वह अपना टोल हटा ले। उसके बाद भी कुछ समय तक टोल चलता रहा। फिर लोगों ने जमा होकर उसे हटवाया तो बात बनी।
मिट्टी के मोल संपत्ति
कोई नहीं जानता कि छह लाख करोड़ जुटाने के लिए सरकारी संसाधन जब लीज पर दिए जाएंगे तो यह लीज कितने साल की होगी। निश्चित रूप से यह अवधि काफी लंबी होगी क्योंकि ये संसाधन किसी प्राइवेट पार्टी को अभी की हालत में अतिरिक्त पैसे नहीं देने वाले। इन्हें प्रॉफिटेबल बनाने के लिए उसे इनके इर्दगिर्द कुछ और ढांचे खड़े करने होंगे। मसलन, एक टोलदार सड़क से अतिरिक्त कमाई करने के लिए सड़क किनारे की जगहों का बेहतर उपयोग करना होगा- जैसे उन्हें ढाबों और मनोरंजन की जगहों के लिए सब-लीज पर देना। लेकिन ऐसे काम लंबी लीज की मांग करते हैं।
सरकारें संसाधनों का मालिकाना अपने हाथ में बने रहने की बात जरूर करती हैं लेकिन यह एक हवा-हवाई मामला ही हुआ करता है। एक जमीन को 99 साल की लीज पर देने के बाद उस पर अपने मालिकाने की बात आप पांच पीढ़ी आगे के लिए कर रहे होते हैं, जब दुनिया कुछ की कुछ हो चुकी होगी। यहां सौदे को आकर्षक बनाने के लिए सरकार के पास अकेला रास्ता उसे सस्ते से सस्ता रखने का है। मसलन, 2.86 लाख किलोमीटर लंबे देशव्यापी ऑप्टिकल फाइबर नेटवर्क की लीज से 26,300 करोड़ आने की उम्मीद की गई है। यह रकम 9 लाख रुपये प्रति किलोमीटर से भी कम पड़ रही है, जो एक तरह से अपनी संपत्ति को मिट्टी के मोल निकाल देने जैसा ही है। देखें, कितना पैसा इससे जुटता है, कितनी नौकरियों की भरपाई हो पाती है।

 


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