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11 दिसंबर को भगवान दत्तात्रेय जयंती, पढ़ें सती अनुसूया की अनोखी कथा

11 दिसंबर को भगवान दत्तात्रेय जयंती, पढ़ें सती अनुसूया की अनोखी कथा

मार्गशीर्ष मास की पूर्णिमा को दत्तात्रेय जयंती के रूप में भी मनाई जाती है। इस वर्ष 11 दिसंबर 2019 को मनाई जाएगी। मान्यता अनुसार इस दिन भगवान दत्तात्रेय का जन्म हुआ था। धार्मिक ग्रंथों के अनुसार भगवान दत्तात्रेय को ब्रह्मा, विष्णु, महेश तीनों का स्वरूप माना जाता है। दत्तात्रेय में ईश्वर एवं गुरु दोनों रूप समाहित हैं जिस कारण इन्हें श्री गुरुदेवदत्त भी कहा जाता है।

मान्यता अनुसार दत्तात्रेय का जन्म मार्गशीर्ष मास की पूर्णिमा को प्रदोषकाल में हुआ था। श्रीमद्भागवत के अनुसार दत्तात्रेय जी ने 24 गुरुओं से शिक्षा प्राप्त की थी। भगवान दत्त के नाम पर दत्त संप्रदाय का उदय हुआ। दक्षिण भारत में इनके अनेक प्रसिद्ध मंदिर भी हैं। मार्गशीर्ष मास की पूर्णिमा को भगवान दत्तात्रेय के निमित्त व्रत करने एवं उनके दर्शन-पूजन करने से सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं।

दत्तात्रेय स्वरूप

दत्तात्रेय जयंती प्रतिवर्ष मार्गशीर्ष माह की पूर्णिमा को मनाई जाती है। दत्तात्रेय के संबंध में प्रचलित है कि इनके तीन सिर हैं और छ: भुजाएं हैं। इनके भीतर ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश तीनों का ही संयुक्त रुप से अंश मौजूद है। इस दिन दत्तात्रेय जी के बालरुप की पूजा की जाती है।

दत्तात्रेय जयंती कथा

नारद जी 3 देवियों का गर्व चूर करने के लिए बारी-बारी से तीनों देवियों के पास जाते हैं और देवी अनुसूया के पतिव्रत धर्म का गुणगान करते हैं। देवी ईर्ष्या से भर उठी और नारद जी के जाने के पश्चात भगवान शंकर से अनुसूया का सतीत्व भंग करने की जिद करने लगी। सर्वप्रथम नारद जी पार्वती जी के पास पहुंचे और अत्रि ऋषि की पत्नी देवी अनुसूया के पतिव्रत धर्म का गुणगान करने लगे।

देवीयों को सती अनुसूया की प्रशंसा सुनना कतई भी रास नहीं आया। घमंड के कारण वह जलने-भुनने लगी। नारद जी के चले जाने के बाद वह देवी अनुसूया के पतिव्रत धर्म को भंग करने की बात करने लगी। ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश तीनों को अपनी पत्नियो के सामने हार माननी पड़ी और वह तीनों ही देवी अनुसूया की कुटिया के सामने एक साथ साधु के वेश में जाकर खड़े हो गए। जब देवी अनुसूया इन्हें भिक्षा देने लगी तब इन्होंने भिक्षा लेने से मना कर दिया और भोजन करने की इच्छा प्रकट की।

देवी अनुसूया ने अतिथि सत्कार को अपना धर्म मानते हुए उनकी बात मान ली और उनके लिए प्रेम भाव से भोजन की थाली परोस लाई। लेकिन तीनों देवों ने भोजन करने से इंकार करते हुए कहा कि जब तक आप वस्त्रहीन होकर भोजन नहीं परोसेगी तब तक हम भोजन नहीं करेगें। देवी अनुसूया यह सुनते ही पहले तो स्तब्ध रह गई और गुस्से से भर उठी। लेकिन अपने पतिव्रत धर्म के बल पर उन्होंने तीनों की मंशा जान ली।

उसके बाद देवी ने ऋषि अत्रि के चरणों का जल तीनों देवों पर छिड़क दिया। जल छिड़कते ही तीनों ने बालरुप धारण कर लिया। बालरुप में तीनों को भरपेट भोजन कराया। देवी अनुसूया उन्हें पालने में लिटाकर अपने प्रेम तथा वात्सल्य से उन्हें पालने लगी। धीरे-धीरे दिन बीतने लगे। जब काफी दिन बीतने पर भी ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश घर नहीं लौटे तब तीनों देवियों को अपने पतियों की चिंता सताने लगी।

देवियों को अपनी भूल पर पछतावा होने लगा। वह तीनों ही माता अनुसूया से क्षमा मांगने लगी। तीनों ने उनके पतिव्रत धर्म के समक्ष अपना सिर झुकाया। माता अनुसूया ने कहा कि इन तीनों ने मेरा दूध पीया है, इसलिए इन्हें बालरुप में ही रहना ही होगा। यह सुनकर तीनों देवों ने अपने-अपने अंश को मिलाकर एक नया अंश पैदा किया। इसका नाम दत्तात्रेय रखा गया। इनके तीन सिर तथा छ: हाथ बने। तीनों देवों को एकसाथ बालरुप में दत्तात्रेय के अंश में पाने के बाद माता अनुसूया ने अपने पति अत्रि ऋषि के चरणों का जल तीनों देवों पर छिड़का और उन्हें पूर्ववत रुप प्रदान कर दिया

 

30 साल तक वायु सैनिकों की हत्या का मामला ठंडे बस्ते में पड़ा रहा, जिसका आरोपी यासीन मलिक है

30 साल तक वायु सैनिकों की हत्या का मामला ठंडे बस्ते में पड़ा रहा, जिसका आरोपी यासीन मलिक है

पांच अगस्त के बाद से ही कश्मीर खबरों में छाया हुआ है, लेकिन यह जरूरी नहीं कि कश्मीर से आने वाली या फिर उससे संबंधित हर खबर देश का ध्यान आकर्षित कर रही हो। इसका उदाहरण हाल में आई वह खबर है जो यह बताती है कि 30 साल बाद श्रीनगर में हत्या के एक मामले की सुनवाई शुरू होने वाली है। यह हत्या का सामान्य मामला नहीं। यह 1990 में गणतंत्र दिवस से एक दिन पहले यानी 25 जनवरी को श्रीनगर के बाहरी इलाके में वायुसेना के चार कर्मियों की हत्या का मामला है। इस मामले का मुख्य आरोपी यासीन मलिक है, जो जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट का मुखिया है और फिलहाल आतंकी फंडिंग के आरोप में न्यायिक हिरासत में है। उसे राष्ट्रीय जांच एजेंसी ने अनुचित तरीके से बाहर से पैसा हासिल करने और पत्थरबाजों को उकसाने के आरोप में गिरफ्तार किया था।

यासीन मलिक पर रुबिया सईद के अपहरण का आरोप

यासीन मलिक पर 1989 में केंद्रीय गृह मंत्री रहे मुफ्ती मुहम्मद सईद की बेटी के अपहरण का भी आरोप है, लेकिन पिछले दिनों जब उसके संगठन जेकेएलएफ पर पाबंदी लगाई गई तो इसका विरोध जिन लोगों ने किया उनमें मुफ्ती मुहम्मद सईद की दूसरी बेटी और पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती भी शामिल थींं। उन्होंने इस पाबंदी को गलत बताते हुए कहा कि अगर वह सत्ता में आईं तो जेकेएलएफ पर लगाए गए प्रतिबंध को हटा देंगी। पता नहीं उनकी यह इच्छा पूरी होगी या नहीं, लेकिन यासीन मलिक के मुरीद फारूक अब्दुल्ला भी हैैं। वास्तव में महबूबा और फारूक, दोनों ही यह मान रहे हैैं कि यासीन मलिक कश्मीर मसले का एक पक्ष है। ऐसा मानने वाले और भी हैैं-न केवल कश्मीर में, बल्कि दिल्ली में भी।

 

यासीन मलिक पर वायु सेना के चार कर्मियों की हत्या का आरोप

 

वायु सेना के चार कर्मियों की हत्या के मामले की जांच करते हुए सीबीआइ ने अगस्त 1990 में ही जम्मू की टाडा अदालत में यासीन मलिक के खिलाफ आरोपपत्र दायर कर दिया था, लेकिन 1995 में जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट की एकल पीठ ने यह कहते हुए मलिक के खिलाफ सुनवाई पर रोक लगा दी कि श्रीनगर में टाडा अदालत नहीं है। इसी के साथ रुबिया सईद के अपहरण के मामले की भी सुनवाई थम गई। इस मामले में आरोप पत्र सितंबर 1990 में दाखिल हुआ था। कोई नहीं जानता कि इसके बाद किसी ने इसकी सुध क्यों नहीं ली कि इस मामले की सुनवाई आगे बढ़े? आखिर कोई वायु सेना के चार कर्मियों की हत्या की अनदेखी कैसे कर सकता है? चूंकि यासीन मलिक पर टाडा के तहत मामले की सुनवाई पर रोक का आदेश हाईकोर्ट की एकल पीठ ने दिया था इसलिए उसे आसानी से चुनौती दी जा सकती थी, लेकिन ऐसा नहीं किया गया।

 

यासीन मलिक के खिलाफ नहीं हुई सुनवाई

 

अगर जम्मू की टाडा अदालत में इस मामले की सुनवाई नहीं होे सकती थी तो किसी अन्य अदालत में तो हो ही सकती थी। दुर्भाग्य से ऐसा भी नहीं हो सका। इस मामले की सुनवाई शायद इसलिए आगे नहीं बढ़ सकी, क्योंकि किसी ने इसमें दिलचस्पी नहीं ली कि इस बड़ी आतंकी वारदात को अंजाम देने वालों को यथाशीघ्र सजा मिले। बहुत संभव है कि इस मामले के ठंडे बस्ते में चले जाने के पीछे एक कारण अनुच्छेद 370 के प्रावधान रहे हों, लेकिन इसका कोई मतलब नहीं कि इतनी बड़ी आतंकी घटना की कोई सुध न ले। क्या ऐसा इसलिए हुआ कि यासीन मलिक ने बाद में कथित तौर पर हिंसा का रास्ता छोड़ने का एलान कर दिया था?

 

यासीन मलिक ने बदला पाला

 

पता नहीं सच क्या है, लेकिन यह किसी से छिपा नहीं कि कुछ लोग उसे गांधीवादी बताने लगे थे। इसके बाद वह हुर्रियत कांफ्रेंस का हिस्सा बनकर कश्मीर मसले के हल के लिए केंद्र सरकार से होने वाली वार्ताओं में भी शामिल होने लगा। ऐसा लगता है कि इस दौरान इस बात को भुलाना ही बेहतर समझा गया कि कश्मीरी पंडितों के पलायन में भी यासीन मलिक और उसके साथियों की बड़ी भूमिका थी। उसके अतीत से भली तरह परिचित होते हुए भी पता नहीं कैसे यासीन मलिक को कश्मीर समस्या के समाधान में सहायक मान लिया गया? चूंकि ऐसा मान लिया गया इसलिए उसकी एक तरह से मेहमानवाजी होने लगी।

 

यासीन मलिक बना रोल मॉडल

 

हत्या और अपहरण के मामले में वांछित होने के बाद भी यासीन मलिक को देश से बाहर जाने की इजाजत मिल गई। इतना ही नहीं, वह टीवी चैनलों में कश्मीर के विशेषज्ञ के तौर पर उपस्थित होने लगा और उसे कश्मीर के युवाओं के लिए रोल मॉडल के तौर पर भी पेश किया जाने लगा। कुछ लोग ऐसे भी थे जो उसे मानवाधिकारों के मसीहा के तौर पर रेखांकित करते थे।

हत्या और अपहरण के आरोप साबित नहीं हुए

यह सही है कि जब यह सब हो रहा था तब उस पर हत्या और अपरहण के आरोप भर थे और वे साबित नहीं हुए थे, लेकिन आखिर ऐसा कौन देश है जो अपने सैनिकों के हत्यारोपी से इतनी नरमी से पेश आता है? साफ है कि इसकी जानबूझकर अनदेखी की जा रही थी कि यासीन मलिक वायुसेना के चार कर्मियों की हत्या का आरोपी है। इससे संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता कि आखिरकार तीस साल बाद यासीन मलिक के मामले की सुनवाई होने जा रही है, क्योंकि इसी के साथ यह भी पता चलना चाहिए कि आखिर इस मामले में इतनी देरी के लिए कौन जिम्मेदार है?

यासीन मलिक के प्रति  नरमी

1990 में श्रीनगर में मारे गए वायु सेना के चार कर्मियों में से एक स्क्वाड्रन लीडर रवि खन्ना भी थे। उनकी पत्नी के अनुसार तीस साल बाद उन्हें उम्मीद की एक रोशनी नजर आई है, लेकिन उनके इस सवाल का जवाब शायद ही किसी के पास हो कि आखिर उनके पति का कसूर क्या था? इससे भी बड़ा सवाल यह है कि 1995 से 2019 तक यह मामला ठंडे बस्ते में क्यों पड़ा रहा? वास्तव में यह देर नहीं अंधेर है। यह अंधेर उस दौरान हुई जब यह बार-बार दोहराया जा रहा था कि आतंक के खिलाफ सख्ती से निपटा जाएगा। अगर यह सख्ती थी तो फिर नरमी किसे कहते हैैं? नि:संदेह यासीन मलिक का मामला एकलौता प्रकरण नहीं है। कश्मीर में इस तरह के तमाम मामले हैैं जिनकी सुनवाई का अता-पता नहीं। इनमें कई मामले कश्मीरी पंडितों की हत्या के भी हैैं।

भूले-बिसरे फिरोज गांधी: असाधारण सांसद के स्मरण के लिए भारत को काफी कुछ करने की दरकार है

भूले-बिसरे फिरोज गांधी: असाधारण सांसद के स्मरण के लिए भारत को काफी कुछ करने की दरकार है

आठ सितंबर को फिरोज गांधी की पुण्यतिथि थी, लेकिन शायद ही किसी और यहां तक कांग्रेसी नेताओं ने उनका स्मरण किया हो। 12 सितंबर को उनकी जन्म तिथि है। देखना है कि तब भी उनका स्मरण होता है या नहीं? जो भी हो, ऐसा विरले ही देखने को मिलता है कि सत्तापक्ष का कोई सांसद अपनी ही सरकार के खिलाफ भ्रष्टाचार के खुलासे और पारदर्शिता लाने के लिए अड़ जाए। फिरोज गांधी कांग्रेस पार्टी के ऐसे ही सांसद थे। वह भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज बुलंद करने वाले और नि:संदेह भारत के सबसे पहले बेहतरीन खोजी सांसद थे।

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फिरोज गांधी का स्मरण

देश में उनकी स्मृति में कोई खास आयोजन नहीं होते, जबकि हमें कई बातों के लिए फिरोज गांधी का अवश्य ही स्मरण करना चाहिए। मसलन स्वतंत्रता संग्राम में उनकी भागीदारी जिसके चलते उन्हें कई बार जेल जाना पड़ा। सार्वजनिक जीवन में शुचिता एवं पारदर्शिता के लिए बड़ी मेहनत से की गई उनकी तफ्तीश और प्रतिबद्धता को भी याद करना होगा जिसके चलते नेहरू सरकार में वित्त मंत्री टीटी कृष्णमाचारी को अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा। बीमा कारोबार का राष्ट्रीयकरण हुआ और एक ऐसा कानून बना जिसमें मीडिया को संसदीय कार्यवाही की रिपोर्टिंग के मामले में मानहानि और दूसरे अभियोगों को लेकर राहत मिली।

 

सोनिया गांधी के ससुर फिरोज गांधी

 

चूंकि कांग्रेस पार्टी कभी उनका नाम नहीं लेती तो शायद युवा पीढ़ी को यह नहीं मालूम कि वह इंदिरा गांधी के पति, सोनिया गांधी के ससुर और राहुल गांधी के दादा थे। यह 1920 के दशक के आखिरी दौर की बात है जब कमला नेहरू से प्रेरित होकर फिरोज स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल हुए। उन्होंने भूमिगत रहकर भी आजादी के लिए अभियान चलाया। 1950 में वह अस्थाई संसद के सदस्य बने और 1952 एवं 1957 में लोकसभा के लिए चुने गए।

 

फिरोज का संसद में पहला भाषण

 

सांसद के रूप में फिरोज शुरुआत में बहुत मुखर नहीं थे, लेकिन दिसंबर 1955 में लोकसभा में अपने पहले भाषण के साथ ही उन्होंने सदन में अपनी धाक जमा ली। जब वह बीमा (संशोधन) विधेयक पर बोल रहे थे हर कोई अपनी सीट से चिपककर उन्हें एकटक सुन रहा था। अपने भाषण से उन्होंने सदन को जकड़कर रख दिया। निजी बीमा कंपनियों की संदिग्ध गतिविधियों का भंडाफोड़ करते हुए उन्होंने जीवन बीमा कारोबार के राष्ट्रीयकरण के पक्ष में पुख्ता दलीलें पेश कीं।

 

सार्वजनिक धन के बेजा खर्च के खिलाफ थे फिरोज

 

उन्होंने सार्वजनिक धन के बेजा खर्च को रोकने की पुरजोर तरीके से पैरवी की जो पैसा इन कंपनियों में निवेश किया जा रहा था। जब उन्होंने अपना भाषण समाप्त किया तब तक प्रत्येक सदस्य को यह महसूस हुआ कि निजी बीमा कंपनियां अपराधी हैं। उनके तर्क इतने अकाट्य थे कि दो महीनों के भीतर ही राष्ट्रपति ने बीमा कंपनियों के राष्ट्रीयकरण से जुड़ा अध्यादेश जारी कर दिया। फिरोज का भाषण निजी बीमा कंपनियों के लिए ताबूत में आखिरी कील साबित हुआ। राष्ट्रीयकरण के साथ ही जीवन बीमा निगम यानी एलआइसी अस्तित्व में आई।

 

वित्त मंत्री का ढुलमुल जवाब

 

एक सांसद के लिए यह विशिष्ट उपलब्धि थी, लेकिन अभी और भी कुछ बाकी था। 1957 की दूसरी छमाही में उन्हें वित्त मंत्रालय में घोटाले की भनक लगी। उनके सुनने में आया कि एलआइसी ने एकाएक एचडी मूंदड़ा की कंपनियों के शेयर खरीदे। ये शेयर भी ऊंची कीमतों पर खरीदे गए थे। मूंदड़ा कांग्रेस के करीबी कारोबारी थे। फिरोज ने प्रश्न काल के दौरान इस मुद्दे को उठाया और इस पर विशेष चर्चा की मांग की। वित्त मंत्री के ढुलमुल जवाब ने फिरोज को और सतर्क कर दिया। उन्होंने कहा, ‘मेरे भीतर उथल-पुथल ने मुझे इस मुद्दे को उठाने पर मजूबर किया। इतने बड़े पैमाने पर होने वाली चीजों को लेकर मौन साधना एक अपराध बन जाता है।’

मूंदड़ा संदिग्ध रिकॉर्ड वाले कारोबारी थे

मूंदड़ा संदिग्ध रिकॉर्ड वाले कारोबारी थे जिन्होंने कांग्रेस को बड़ा चुनावी चंदा दिया था। जब वह वित्तीय संकट में फंसे तो चाहते थे कि नेहरू सरकार उन्हें उबार ले। उन्होंने सरकार से उनकी कंपनियों में करोड़ो रुपये के शेयर खरीदने के लिए कहा। उनकी सभी कंपनियों की हालत खस्ता थी, फिर भी सरकार एलआइसी के जरिये शेयर खरीदारी के लिए तैयार हो गई। इसी दौरान मूंदड़ा ने कलकत्ता स्टॉक एक्सचेंज में अपनी कंपनियों के शेयर खरीदकर कृत्रिम रूप से उनका भाव बढ़ा दिया। ऐसे में जब एलआइसी ने शेयर खरीदे तो उनके दाम उससे ज्यादा बढ़ गए थे जब मूंदड़ा ने सरकार से मदद की गुहार लगाई थी। यही एलआइसी-मूंदड़ा घोटाला था।

सरकार के पास कोई ठोस जवाब नहीं था

सरकारी गड़बड़ का खुलासा करने के लिए फिरोज गांधी ने एक पखवाड़े के दौरान इन कंपनियों के शेयरों के भाव की पड़ताल की। वित्त मंत्री टीटी कृष्णमाचारी ने एलआइसी द्वारा अपने पोर्टफोलियो का विस्तार करने की दुहाई देते हुए इस सौदे का बचाव करने की कोशिश की, लेकिन फिरोज इससे आश्वस्त नहीं हुए। उन्होंने-आपने मूंदड़ा की कंपनियों पर ही नजरें इनायत क्यों कीं और क्यों शेयर ऊंचे भाव पर खरीदे गए? सार्वजनिक धन को ऐसे कैसे खर्च किया जा सकता है? एलआइसी द्वारा खरीदारी के बाद ये शेयर क्यों गिरावट के शिकार हो गए? जैसे कई तल्ख सवाल किए। सरकार के पास कोई ठोस जवाब नहीं था। नेहरू को जांच आयोग गठित करने पर मजबूर होना पड़ा। जांच में वित्त मंत्री को नैतिक रूप से दोषी पाया गया। फिर उन्हें इस्तीफा देना पड़ा।

फिरोज गांधी की उपलब्धियां

अपने संसदीय करियर में फिरोज गांधी की कई उपलब्धियां रहीं। इनमें संसदीय रिपोर्टिंग के दौरान प्रेस को सांसदों के कोप से बचाने वाला कानून बनाना भी शामिल है। पत्रकारों ने उन्हें बताया था कि संसद में मुखर रूप से बोलने के लिए सांसदों को तो विशेषाधिकार हासिल हैं वहीं पत्रकारों को संसदीय रिपोर्टिंग के दौरान मानहानि और अन्य कानूनी परेशानियों का जोखिम झेलना पड़ता है। लोकतंत्र और प्रेस की स्वतंत्रता में अपनी अगाध आस्था के चलते उन्हें महसूस हुआ कि संसदीय रिपोर्टिंग के दौरान मीडिया के समक्ष कोई बाधा नहीं होनी चाहिए और लोगों को विधायी कार्यवाही का वास्तविक ब्योरा मिलना चाहिए।

फिरोज गांधी एक सच्चे जनप्रतिनिधि

उन्होंने इससे जुड़ा विधेयक संसद में रखा। इन सभी मामलों में फिरोज गांधी ने तथ्यों और आंकड़ों पर अपनी पकड़ से लगभग अकेले ही इन्हें तार्किक परिणति तक पहुंचाया। तमाम ऐसे कारक थे जिन्होंने फिरोज गांधी को सच्चा जनप्रतिनिधि बनने के लिए प्रेरित किया। एक तो विद्रोही स्वभाव और जन कल्याण एवं लोकतंत्र के लिए उनकी प्रतिबद्धता थी। दूसरा उन सूचनाओं को जुटाने की कर्मठता जिससे वे अपने मामलों की पैरवी करते और सरकार में अपने सूत्रों से बेहद सहजता से जुड़ते। अंत में उनके संसदीय कौशल की बारी आती थी। यही वजह थी कि उनके साथी सांसद और नेहरू सरकार में मंत्री उन्हें ‘गूढ़ जानकारियां रखने वाला खतरनाक शख्स’ करार देते थे। ऐसे असाधारण सांसद के स्मरण के लिए भारत को काफी कुछ करने की दरकार है।

भारतीय अर्थव्यवस्था पर संकट: मोदी सरकार के सामने आर्थिक मंदी से निपटने की बड़ी चुनौती

भारतीय अर्थव्यवस्था पर संकट: मोदी सरकार के सामने आर्थिक मंदी से निपटने की बड़ी चुनौती

जॉन मेनार्ड कींस बीसवीं सदी के पूर्वार्ध के सबसे प्रसिद्ध अर्थशास्त्री थे। 1929 में शुरू हुए ग्रेट डिप्रेशन यानी महामंदी का अध्ययन करने के बाद उन्होंने पैराडॉक्स ऑफ थ्रिफ्ट यानी किफायत के विरोधाभास की अवधारणा पेश की। थ्रिफ्ट शब्द मूल रूप से पैसों के सावधानीपूर्वक उपयोग से जुड़ा है। कींस ने 1929 की महामंदी के बाद व्याप्त आर्थिक स्थितियों को समझाने के लिए उसका इस्तेमाल किया। 1929 में शेयरों और वस्तुओं की कीमतों में गिरावट के बाद लोगों ने बड़े पैमाने पर अपना खर्च घटा लिया।

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भारतीय अर्थव्यवस्था पर संकट

यदि कोई व्यक्ति अपने खर्च में कटौती करता है तो यह अलग बात है, लेकिन अगर यही चीज सामूहिक स्तर पर होने लगे तो एक बड़ी समस्या खड़ी हो जाती है। ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि एक व्यक्ति का खर्च दूसरे व्यक्ति की आय है। इसलिए जब भी कभी समाज का एक बड़ा हिस्सा पैसा खर्च करना कम कर देता है तो अर्थव्यवस्था के लिए संकट खड़ा हो जाता है। इसे ही पैराडॉक्स ऑफ थ्रिफ्ट कहते हैं। पिछले कुछ महीनों में ऐसा ही कुछ भारतीय अर्थव्यवस्था में देखने को मिल रहा है।

 

वाहनों की बिक्री में गिरावट

गाड़ियों, दोपहिया वाहनों, ट्रैक्टरों और वाणिज्यिक वाहनों की बिक्री बहुत ज्यादा गिरी है। अगर अगस्त के महीने को ही देखें तो यात्री कारों की बिक्री करीब 41.1 प्रतिशत गिरी। वहीं दोपहिया वाहनों की बिक्री में 22.2 फीसद गिरावट आई। इसी तरह कमर्शियल वाहनों की बिक्री 38.7 प्रतिशत गिरी है। इसके अलावा लोग बिस्कुट जैसी वस्तुओं का भी कम ही उपभोग कर रहे हैं। ये सभी पैराडॉक्स ऑफ थ्रिफ्ट का जीता जागता उदाहरण हैैं।

 

खर्च में कटौती करना अर्थव्यवस्था के लिए शुभ संकेत नहीं

यदि आबादी का एक बड़ा हिस्सा अपने खर्च में कटौती करता है तो लगभग पूरी आबादी की आय प्रभावित होती है। इस श्रेणी में बड़े कारोबारियों से लेकर किराने की दुकान चलाने वाले व्यापारी तक सभी शामिल हैं। यह अर्थव्यवस्था के लिए शुभ संकेत नहीं होता। इस स्थिति में प्रतिस्पर्धी बने रहने के लिए व्यापारी कर्मचारियों को नौकरी से निकालते हैं। ऐसा अभी वाहन और उससे जुड़े क्षेत्रों में देखा भी जा सकता है। कई कंपनियां उत्पादन में कटौती कर रही हैं। इन सभी चीजों से खर्च में और कमी आती है। अब प्रश्न यही है कि ऐसे हालात में क्या किया जा सकता है? कींस का मानना था कि ऐसी स्थिति में किफायत के विरोधाभास को तोड़ना बहुत जरूरी है। यह तभी हो सकता है जब सरकार अपनी तरफ से ज्यादा पैसा खर्च करे। इस खर्च से लोगों की आय बढ़ेगी और फिर वे उस पैसे को खर्च करेंगे और धीरे-धीरे किफायत के विरोधाभास का तिलिस्म टूटेगा।

 

सरकारी खर्च में बेतहाशा इजाफा उचित नहीं

2008 में वित्तीय संकट की दस्तक के बाद भारत सरकार ने कुछ ऐसा ही करते हुए जमकर पैसा खर्च किया था। सरकारी बैंकों ने भी उदारता के साथ कर्ज दिए। इसके पीछे यही कोशिश थी कि किफायत का विरोधाभास पैठ न बनाने पाए। इसके अनुकूल नतीजे भी मिले। 2009 से 2011 के बीच भारतीय अर्थव्यवस्था काफी तेजी से बढ़ी, मगर उसके बाद एक-एक करके समस्याएं आनी शुरू हो गईं। मसलन मुद्रास्फीति यानी महंगाई की दर दस प्रतिशत से ज्यादा हो गई। बैंकों के कर्ज फंसने से उन पर एनपीए का बोझ बढ़ने लगा। चूंकि देश अभी भी इस संकट से जूझ रहा है इसीलिए सरकारी खर्च में बेतहाशा इजाफा उचित नहीं होगा। ऐसी स्थिति में सरकार और क्या कर सकती है?

 

गाड़ियों पर जीएसटी की दर को कम नहीं किया जाएगा

सरकार सीधा पैसा खर्च करने के बजाय लोगों के हाथों में पैसा दे सकती है जिसे वे खर्च कर उपभोग बढ़ा सकते हैं। यह प्रत्यक्ष रूप से आयकर कटौती और अप्रत्यक्ष करों के मोर्चे पर जीएसटी दरों में कटौती के माध्यम से किया जा सकता है। जीएसटी की फिटमेंट कमेटी ने कहा है कि गाड़ियों पर जीएसटी की दर को कम नहीं किया जाएगा, क्योंकि इससे राजस्व का नुकसान होगा, मगर जब कर की ऊंची दरों पर गाड़ियों की बिक्री ही नहीं होगी तब उसके एवज में सरकार को राजस्व कहां से मिलेगा? अगर दर घटाई गई तो ज्यादा गाड़ियां बिक सकती हैं और सरकार को अधिक राजस्व मिल सकता है। यहां नोबेल पुरस्कार से सम्मानित अर्थशास्त्री रिचर्ड थालर की बात पर गौर करना होगा।

 

जीसएटी की पेचीदगियों को सुलझाना जरूरी

हाल में फाइनेंशियल टाइम्स को दिए एक साक्षात्कार में थालर ने कहा, ‘यदि आप चाहते हैं कि लोग कुछ करें तो उस काम को आसान बनाएं।’ इस बात को ध्यान में रखते हुए यह कहा जा सकता है कि अब यह जरूरी हो गया है कि जीसएटी की पेचीदगियों को सुलझाया जाए। इन पेचीदगियों की वजह से सरकार को अपेक्षित राजस्व भी हासिल नहीं हो पा रहा है। इसमें एक या दो दरें होनी चाहिए, जैसा की जीएसटी अपनाने वाले अधिकांश देशों में है। इससे व्यापारियों को भी लाभ होगा।

 

छोटे व्यापारियों के लिए जीसएटी बड़ा सिरदर्द

तमाम छोटे व्यापारियों के लिए जीसएटी बड़ा सिरदर्द बन गया है। इसके साथ ही अब समय आ गया है कि सरकार घाटे में चल रहे तमाम सरकारी उपक्रमों पर पैसा बर्बाद करना बंद करे। इनमें विनिवेश के साथ ही इन कंपनियों की रियल एस्टेट परिसंपत्तियों को भी भुनाने की दरकार है। इससे राजकोषीय घाटे के मोर्चे पर भी सरकार को मदद मिलेगी यानी सरकार को बाजार से कम उधार लेना होगा और ब्याज दरें भी मौजूदा स्तर पर कायम रहेंगी।

 

सार्वजनिक उपक्रमों का निजीकरण

इसी के साथ जिन सार्वजनिक उपक्रमों का निजीकरण हो सकता है, उनका निजीकरण किया जाना चाहिए। अंग्रेजी में एक कहावत है ‘द बिजनेस ऑफ द गवर्नमेंट इज नॉट बिजनेस।’ यानी सरकार का काम कारोबार करना नहीं है। अब वक्त आ गया है कि इसे लागू किया जाए। सरकार को हर जगह अपना दखल बढ़ाने के बजाय कृषि, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे क्षेत्रों पर खास तौर पर ध्यान दे।

 

इंस्पेक्टर राज से मुक्ति पानी होगी

समय की यह भी मांग है कि देश में उद्यमशीलता की प्रक्रिया को वास्तविक रूप से आसान बनाया जाए। इंस्पेक्टर राज से पूरी तरह मुक्ति पानी होगी। इतिहास साक्षी है कि किसी अर्थव्यवस्था में नौकरियां तभी बढ़ती हैं जब छोटी कंपनियों का दायरा बड़ा होता है। भारत में अमूमन छोटी कंपनियां छोटी रह जाती हैं या और सिकुड़ जाती हैं। जमीन खरीदने और बेचने की प्रक्रिया को आसान बनाने की जरूरत है। खासतौर से भूमि उपयोग कानूनों में बदलाव लाने की जरूरत है। क्लियर लैंड टाइटल्स से भी उद्यमशीलता को बढ़ावा मिलेगा।

 

सफलता का कोई शॉर्टकट नहीं होता

रोजगार सृजन को बढ़ावा देने के लिए सरकार को विभिन्न क्षेत्रों में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश यानी एफडीआइ की और अनुमति देनी चाहिए। मिसाल के तौर पर मल्टी ब्रांड रिटेल में शत प्रतिशत एफडीआइ से जहां कृषि आपूर्ति शृंखला में सुधार होगा वहीं युवाओं को नौकरियां भी मिलेंगी। इससे किसान भी लाभान्वित होंगे। यहां जिन कदमों की चर्चा की गई है उनमें से अधिकांश दीर्घावधि में ही फायदेमंद साबित होंगे। ध्यान रहे कि सफलता का कोई शॉर्टकट नहीं होता।

Analysis: जानें- अफगानिस्तान में तालिबान पर अमेरिकी रुख से भारत को कैसे मिलेगी राहत

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अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप कब क्या कर देंगे या क्या बोल देंगे, इस बारे में कोई भी भविष्यवाणी जोखिम भरी होगी। बावजूद इसकेतालिबान से बातचीत को खत्म करने की उनकी घोषणा राहतकारी है। जब पिछले दो अगस्त को घोषणा हुई कि अमेरिका और तालिबान के बीच समझौते को अंतिम रूप दे दिया गया है तो पूरी दुनिया में भविष्य को लेकर कई प्रकार की आशंकाओं के स्वर उभरने लगे। उस घोषणा के अनुसार अमेरिका नाटो सहित अपनी फौजों को वापस कर लेगा।

अमेरिका के विदेश मंत्री इस समझौते से सहमत नहीं
डोनाल्ड ट्रंप प्रशासन के अंदर इस बात पर सहमति है कि हमें किसी तरह अफगानिस्तान से निकल भागना है। इसीलिए जल्मे खलीलजाद को विशेष प्रतिनिधि बनाकर भेजा गया और वह पिछले दिसंबर से कतर की राजधानी दोहा में तालिबान के साथ नौ दौर की बातचीत के बाद समझौते के एक मसौदे पर पहुंचे थे। इससे साफ लगने लगा था कि अमेरिका और तालिबान इस पर हस्ताक्षर करने ही वाले हैं। इसी बीच अमेरिका के विदेश मंत्री माइक पोंपियो ने घोषणा कर दी कि वे इस समझौते से सहमत नहीं हैं। हालांकि तब भी कुछ विशेषज्ञ यह मान रहे थे कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप अपने विदेश मंत्री को दरकिनार कर स्वयं हस्ताक्षर कर देंगे। हालांकि तत्काल तो ट्रंप ने वही किया जो उनके विदेश मंत्री चाहते थे। लेकिन प्रश्न यह है कि आगे क्या?

Article 370 : कश्मीरी भाषाओं के जीवंत होने की उम्मीद, सांस्कृतिक पहचान मजबूत करने का मौका

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मैं एक डोगरा ब्राह्मण हूं, वतन से दूर रहने वाला और जड़ों से बिल्कुल कटा। मातृभाषा है डोगरी। पर मैंने क्या, मेरे पिता ने भी डोगरी या कश्मीरी कभी नहीं बोली। पुरखों की मातृभाषा से वास्ता पड़ा तो प्रवासियों के सालाना मिलन समारोहों में या रिश्तेदारों के घर जम्मू जाने पर। जब तक जम्मू-कश्मीर से अपने गहरे रिश्तों का भान होता, गंगा में बहुत सारा पानी बह चुका था। अखबार की नौकरी बनारस से मुंबई खींच लाई, जहां डोगरी तो दूर, ढंग से मराठी भी नहीं सीख पाया हूं। महानगर में इस समुदाय से जो साबका पड़ा उससे अपने ही पुरखों की भाषा, रीति-रिवाज और संस्कार से परिचित न होने की कुंठा बढ़ती गई। महसूस किया कि तादाद में बहुत कम होने के बावजूद इन लोगों में अपनी जड़ों से जुड़ने की कामना कितनी प्रबल है। उन्हें हर जगह देखा-सिक्योरिटी एजेंसी और फौज में। आइटी, व्यापार और होटल बिजनेस में। सबसे ज्यादा तो फिल्म लाइन के साइड धंधों में। दिल्ली के बाद देश में सबसे ज्यादा डोगरे और कश्मीरी पंडित मुंबई में ही बसे हैं।

 

कुंठा के बाद जो पहली प्रतीति हुई वह गर्व की। देश की आर्थिक राजधानी में ऐसे बहुत कम समुदाय हैं, जिन्होंने दर-बदर और वतन से दूर होकर भी अपना अलग स्थान बनाने की जद्दोजहद नहीं छोड़ी है। डोगरे और कश्मीरी जहां भी हैं, अपनी मेहनत से नई जगह बनाते जा रहे हैं। अनुपम खेर तो खैर, सभी को मालूम हैं, पर मुंबई में ही ऐसे कितने ही लोगों को मैं जानता हूं। जैसे ऑफ बीट प्रोफेशन की दो लड़कियां-अफशान आशिक और कश्मीआ वाही। 25 वर्षीया अफशान-जिन्हें कश्मीर घाटी में ‘पुरुषों का खेल’ खेलने के लिए बैन कर दिया गया था-आज महिलाओं के फुटबॉल में धमाल मचा रही हैं। किशोरावस्था कश्मीआ, जिन्होंने मेनसा आइक्यू टेस्ट में सबसे ज्यादा स्कोर कर खुद को इंटेलिजेंट साबित कर दिया है। कश्मीरी पंडित समुदाय की उर्मिला जुत्शी से हुई मुलाकात याद आती है। कश्मीर घाटी में पंडितों के घर-बार और जमीन-जायदाद पर आतंकवादियों का नजला फूटा था, तो जुत्शी परिवार भी नहीं बच पाया था।

 

करीब 12 वर्ष पहले जब वापस लौटने की सारी उम्मीदें खत्म हो गईं, तो मजबूर होकर सब कुछ बेचकर उसे मुंबई को ही स्थायी ठौर बनाना पड़ा। 1989 के पलायन के बाद उनके बच्चों ने कश्मीर देखा तक नहीं है। अगर वे उन्हें अपनी परंपरा और संस्कृति के बारे में बताएंगे नहीं, तो उन्हें पता कैसे चलेगा कि कश्मीर है क्या? ‘यहूदियों का तो लंबे संघर्ष के बाद अपना एक ठिकाना भी है, पर हम तो दर-ब-दर ही भटक रहे हैं’, कश्मीरी पंडित एसोसिएशन के राजेन कौल कहते हैं, ‘अपनी भाषा और संस्कृति हमने बचाकर नहीं रखी तो यह खत्म हो जाएगी।’ इसीलिए 65 वर्षों से मुंबई के सारे डोगरे परिवार जनवरी-फरवरी के किसी सप्ताहांत में मिलकर 24 घंटों तक हवन और सामूहिक भोज का आयोजन करते आए हैं।