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आलेख: कोरोना कहर के बीच चुनावी लहर- राजकुमार सिंह

आलेख: कोरोना कहर के बीच चुनावी लहर- राजकुमार सिंह

मुख्य चुनाव आयुक्त सुशील चंद्रा की लखनऊ में टिप्पणी कि सभी राजनीतिक दल समय पर चुनाव चाहते हैं, सत्ता-राजनीति की संवेदनहीनता का एक और उदाहरण है। चंद महीनों की आंशिक राहत के बाद देश एक बार फिर से कोरोना की लहर में फंसता दिख रहा है। लगभग सात माह के अंतराल के बाद नये कोरोना मामलों का दैनिक आंकड़ा एक लाख पार कर गया है। बेशक कोरोना के इस कहर के बीच सरकारों ने आम जन जीवन पर पाबंदियां भी बढ़ायी हैं। कहीं रात्रि कर्फ्यू है तो कहीं वीकेंड कर्फ्यू भी है। सरकारी-गैर सरकारी दफ्तरों में हाजिरी 50 प्रतिशत तक सीमित कर दी गयी है। शिक्षण संस्थानों पर एक बार फिर से ताले लग गये हैं तो बाजार भी शाम से ही बंद होने लगे हैं। बिना वैक्सीनेशन आवागमन आसान नहीं रह गया है तो कहीं-कहीं उसके बिना वेतन पर भी रोक है, लेकिन दिनोंदिन बढ़ती इन पाबंदियों के बीच भी एक चीज पूरी तरह खुली है—और वह है राजनीति, खासकर फरवरी-मार्च में आसन्न विधानसभा चुनाव वाले राज्यों में। समाचार माध्यमों में दिखाये जाने वाले फोटो-वीडियो साक्षी हैं कि हमारे ज्यादातर राजनेता जीवन रक्षक बताया जाने वाला मास्क पहनने से ज्यादा जरूरी अपना चेहरा दिखाना समझते हैं। मास्क न पहनने वालों के चालान काटने से हुई कमाई का आंकड़ा बता कर अपनी पीठ थपथपाने में शायद ही कोई राज्य सरकार पीछे रही हो, लेकिन यह किसी ने नहीं बताया कि सत्ता का चाबुक क्या किसी सफेदपोश पर भी चला!
जब ज्यादातर नेताओं का यह आलम है तो फिर कार्यकर्ताओं से आप क्या उम्मीद करेंगे? बेशक नये कोरोना मामलों का दैनिक आंकड़ा एक दिन पहले ही एक लाख पार गया है, लेकिन नये ओमीक्रोन वेरिएंट की दिसंबर में आहट के साथ ही तमाम जानकारों ने आगाह कर दिया था कि तीसरी लहर, दूसरी लहर से ज्यादा प्रबल साबित होगी। उसके बाद भी पंजाब से लेकर गोवा तक राजनीतिक दलों-नेताओं की सत्ता लिप्सा पर कहीं कोई लगाम नजर नहीं आती। यह स्थिति तब है, जब बेकाबू दूसरी लहर और बदहाल स्वास्थ्य तंत्र के चलते अस्पतालों से श्मशान तक के हृदय विदारक दृश्य लोग भुला भी नहीं पाये हैं। किसी मारक महामारी से निपटने में हमारा स्वास्थ्य तंत्र खुद कितना बीमार नजर आता है, पूरी दुनिया देख चुकी है। जान बचाना तो दूर, हमारी सरकारें मृतकों का सही आंकड़ा तक नहीं बता पायीं। पहली लहर के हालात से सबक लेकर स्वास्थ्य सुविधाओं के विस्तार के बड़े-बड़े दावों की पोल दूसरी लहर में खुल चुकी है। कौन दावा कर सकता है कि दूसरी लहर के वक्त किये गये वैसे ही दावों की पोल तीसरी लहर में नहीं खुल जायेगी, क्योंकि घटती समस्या के मद्देनजर उससे मुंह मोड़ लेने की हमारे तंत्र की फितरत तो बहुत पुरानी है। हमारी ज्यादातर समस्याओं के मूल में आग लगने पर कुआं खोदने वाली यह मानसिकता ही है। पर मानसिकता तो तब बदले, जब मन बदले, लेकिन मन तो सत्ता-सुंदरी में इस कदर रमा है कि कुछ और नजर ही नहीं आता। हमारी राजनीति इस कदर चुनावजीवी हो गयी है कि एक चुनाव समाप्त होता है तो दूसरे की बिसात बिछाने में जुट जाती है। ऐसे में सुशासन तो बहुत दूर की बात है, शासन के लिए भी समय मुश्किल से ही मिल पाता है।
मुख्य चुनाव आयुक्त की टिप्पणी से पहले से ही देश में बहस चल रही है कि जब जान और जहान, दोनों खतरे में हैं, तब अतीत से सबक लेकर आसन्न चुनाव स्थगित क्यों न कर दिये जायें। दरअसल मुख्य चुनाव आयुक्त की वह टिप्पणी भी इसी बहस और इससे उपजे सवाल के जवाब में ही आयी। उस टिप्पणी के बाद भी बहस जारी है कि दूसरी लहर में गयीं अनगिनत इनसानी जानों से सबक लेकर तीसरी लहर में मानवीय क्षति से बचने के लिए पांच राज्यों के आसन्न विधानसभा चुनाव स्थगित करने की पहल और फैसला किसे करना चाहिए या कौन कर सकता है? याद रहे कि पिछले साल दूसरी कोरोना लहर के आसपास हुए विधानसभा चुनाव से संक्रमण को मिली घातक रफ्तार और उससे हुई जनहानि के लिए मद्रास उच्च न्यायालय ने सीधे-सीधे चुनाव आयोग को जिम्मेदार ठहराया था। उच्च न्यायालय की टिप्पणियों से तिलमिलाया चुनाव आयोग उनके विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय में भी गया था, लेकिन यह कभी नहीं बताया कि अगर वह नहीं, तो चुनाव प्रचार के दौरान तेज रफ्तार कोरोना संक्रमण के लिए कौन जिम्मेदार था? माना कि हमारा दंतविहीन चुनाव आयोग चुनाव स्थगित करने जैसा फैसला नहीं ले सकता, पर चुनाव प्रचार के लिए ऐसे प्रावधान तो कर सकता है, जो संक्रमण की रफ्तार रोकने में मददगार हों। पिछले साल के चुनावों में अगर बड़ी रैलियों-सभाओं पर पाबंदियों समेत वैसे प्रावधान किये गये होते तो शायद दूसरी लहर का कहर उतना मारक नहीं हुआ होता। विडंबना यह है कि उससे सबक लेकर चुनाव आयोग ने अभी तक आसन्न चुनावों के लिए भी वैसा कोई कदम नहीं उठाया है। जब कोरोना का प्रकोप कम था, तब निर्धारित समय से पहले भी तो यह चुनाव करवाये जा सकते थे?
हमारे संविधान में चुनाव स्थगन सिर्फ आपातकाल में ही संभव है, पर क्या एक संक्रामक महामारी के चलते लाखों नागरिकों की अकाल मौत और वैसी ही आशंका फिर गहराना आपातकाल नहीं है? आदर्श स्थिति होगी कि हमारे राजनीतिक दल-नेता सत्ता लिप्सा से उबर कर तकनीकी-कानूनी बहस में फंसने के बजाय व्यापक राष्ट्रहित में कुछ माह के लिए चुनाव स्थगन पर सहमति तलाशें, जो संविधान संशोधन के माध्यम से संभव भी है। बेशक जानकारों के मुताबिक, अक्सर संकटमोचक की भूमिका निभाने वाला सर्वोच्च न्यायालय भी जन जीवन की रक्षा में ऐसी पहल कर सकता है, पर सवाल वही है कि जीवंत लोकतंत्र के स्वयंभू ठेकेदार राजनीतिक दल और नेता भी कभी किसी राष्ट्र हित-जन हित की कसौटी पर खरा उतरेंगे? नहीं भूलना चाहिए कि पिछले साल कोरोना के कहर के चलते दुनिया के अनेक देशों में चुनाव स्थगित कर विलंब से करवाये गये थे। अगर हमारी सत्ताजीवी राजनीतिक व्यवस्था राष्ट्र हित-जन हित में ऐसा फैसला नहीं ले पाती, तब कम से कम उसे चुनाव प्रचार के सुरक्षित तौर-तरीके तो अवश्य ही अपनाने चाहिए, जिनके लिए चुनाव आयोग के निर्देशों की प्रतीक्षा भी जरूरी नहीं। याद रखें : जनता के लिए सत्ता होती है, सत्ता के लिए जनता नहीं।
हम कई साल से डिजिटल इंडिया का शोर सुन रहे हैं। अगर आबादी के साधन विहीन अशिक्षित बड़े वर्ग पर डिजिटल जिंदगी थोपी जा सकती है तो हमारे सर्व साधन संपन्न राजनीतिक दल और नेता अपनी राजनीति भी डिजिटल क्यों नहीं करते? बिहार और पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव के दौरान वर्चुअल रैलियों का प्रयोग किया भी गया था। वैसे भी हमारे ज्यादातर नेता आजकल सोशल मीडिया के जरिये ही मीडिया और जनता से संवाद करते हैं। तब चुनाव प्रचार भी मीडिया के विभिन्न अवतारों के जरिये क्यों नहीं किया जा सकता? आकाशवाणी और दूरदर्शन पर राजनीतिक दलों को उनकी हैसियत के अनुसार समय आवंटित किया जा सकता है, तो वे समाचार पत्रों-निजी टीवी चैनलों पर भी अपने चुनाव व्यय से स्थान-समय खरीद सकते हैं। बड़ी रैलियों और रोड शो की राजनीति हमारे देश में ज्यादा पुरानी नहीं है। हमारे राजनीतिक दल और नेता छोटी सभाओं और घर-घर संपर्क की पुरानी शैली फिर अपना सकते हैं। अगर आप हमेशा जनता के बीच रहते हैं तो जाहिर है, आप जनता को और जनता आपको बखूबी जानती भी होगी ही। ये पब्लिक है, सब जानती है! तब बड़ी रैलियां, रोड शो और लोक लुभावन घोषणाएं बहुत तार्किक, सार्थक नहीं लगतीं। ऐसे में कोरोना संकट एक अवसर भी है हमारी खर्चीली-दिखावटी चुनाव प्रचार शैली को वापस जनता और जमीन से जोडऩे का। अगर नेता संयम और अनुशासन अपनायेंगे, तो उनके कार्यकर्ता भी ऐसा करने को बाध्य होंगे और जनता अनुसरण को प्रेरित, वरना आत्मघाती लापरवाही की हद तो हम पर्यटन स्थलों से लेकर बाजारों तक देख ही रहे हैं।
 

विशेष लेख : चलो ऐसा उपाय अपनाएं कि लॉकडाउन लौट के न आए...

विशेष लेख : चलो ऐसा उपाय अपनाएं कि लॉकडाउन लौट के न आए...

रायपुर,जब हम हताश और निराश हो जाते हैं तो हमें जिदंगी का एक-एक पल चुनौतियों से भरा और बोझ सा लगने लगता है। हमें नहीं भूलना चाहिए कि उम्मीद पर ही दुनियां टिकी है। जीवन मे आशा और निराशा दोनों होते हैं और हर इंसान के भीतर आशा और निराशा के बीच द्वंद चलता रहता है, इस दौरान हमारी सकारात्मक सोच ही होती है जो हमें उलझनों के बीच आशाओं की नई किरण दिखाती है। हमारी उम्मीदें हमें मुश्किल परिस्थितियों से उबार देती है। हम जानते हैं कि कोरोना महामारी की पहली और दूसरी लहर ने हमारा बहुत कुछ छीन लिया। किसी का बेटा, किसी का पति, भाई-बहन, किसी की मां, पिता और किसी के माता-पिता दोनों...यह एक ऐसी महामारी थी, जिसने बहुतों की जिंदगी असमय ही निगल ली और लाखों लोगों की जिंदगी को पटरी पर दौड़ानें वाली उससे जुड़े जीवनयापन के साधनों को तहस-नहस कर दिया। दहशत के साये में बीते दिनों को याद कर हर कोई सिहर उठता है। खैर समय के साथ एक बार फिर से पटरी पर लौट चुकी जिंदगी अब अच्छा दिन देखना चाहती है, लेकिन नये साल के आगाज के साथ कोरोना की तीसरी लहर और बढ़ती सख्ंया एक बार फिर सबकों सोचनें पर मजबूर कर रहा है। बीते सालों में लॉकडाउन के बीच कटी तनावपूर्ण जिंदगी जैसी परिस्थितियां फिर कोई नहीं चाहता है।
हम जानते हैं कि कोरोना की पहली लहर जब आई तो सिर्फ इस बीमारी के नाम ने ही सभी को दहशत में डाल दिया था। दूसरी लहर में पीडितों की मौतों से सभी सिहर उठे थे। अब तीसरी लहर आने की बात कही जा रही है। खैर डेल्टा वैरियंट के बाद ओमिक्रॉन वैरियंट बहुत तेजी से एक-दूसरे तक फैलने की बात कही जा रही है। अभी तक की स्थिति में संख्या बढ़ने के साथ भयावह रूप और जानलेवा होने की जानकारी नहीं है। फिर भी हम सभी को चाहिए कि तीसरी लहर से बचने का इंतजाम अपने स्तर पर भी कर लेना चाहिए। क्यांेकि कोई बीमारी या महामारी कब जानलेवा बन जाये कहा नहीं जा सकता। हमें इसलिए भी खुद को भाग्यशाली मानना चाहिए कि हम पहली और दूसरी लहर में कोरोना का शिकार होने से बच गए हैं। कोरोना की तीसरी लहर को हमें अपनी हार न मानकर एक चुनौती और सीख के रूप में देखना चाहिए क्योंकि पहली और दूसरी लहर ने हमें मौका भी तो दिया है कि हम कैसे किसी बीमारी से बचने के लिए उपाय करें ? हम कैसे लॉकडाउन में रहे ? हम कैसे दूरियों को मेंटेन करे और स्वच्छता को अपनाते हुए शरीर को फिट रखने का उपाय करें ?
हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि हम ही वे लोग है, जो कोरोना को अपनी लापरवाही की वजह से एक-दूसरे तक फैलाते रहे। हम ही वे लोग है, जो शासन-प्रशासन को लॉकडाउन के लिए मजबूर कर देते हैं और अपनी लापरवाही से ही बहुत से उन लोगों का भी रोजी-रोटी छीन लेते हैं जो रोज कमाते खाते हैं। हम सभी जानते हैं कि लॉकडाउन सभी के लिए एक बड़ी मुसीबत के समान है। पटरी पर दौड़ती अर्थव्यस्था को चरमराने से लेकर विकास में बड़ा बाधक भी है। हमारे सामान्य जनजीवन से देश और राज्य की अर्थव्यवस्था जुड़ी हुई है। दुकान से सामान खरीदने से लेकर, होटल में रूकने, खाने और बस-रेल की यात्राओं, सिनेमा आदि में हम सरकार को जीएसटी के रूप में टैक्स देते हैं। यह सभी राशि देश के विकास में खर्च होती है। विगत दो साल में कोरोना की वजह से हुई लॉकडाउन ने आर्थिक गतिविधियों को बहुत नुकसान पहुचाया। छोटेे-छोटे अनेक उद्योग धंधे बंद हो गए। व्यापार शून्य होने से लाखों लोग बेरोजगार भी हुए। लॉकडाउन से सभी को कुछ न कुछ नुकसान जरूर उठाना पड़ा।
अब जबकि तीसरी लहर का खतरा मंडराया हुआ है। सभी के भीतर लॉकडाउन को लेकर चर्चाएं होने लगी है। शासन-प्रशासन भी हर पहलुओं पर नजर बनाए हुए हैं। युद्धस्तर पर कोविड अस्पताल और वार्ड और बेड की अतिरिक्त व्यवस्था सुनिश्चित की जा रही है। उनकी कोशिश है कि सभी कोरोना गाइडलाइन का पालन कर कोरोना को फैलने से रोकने में सहयोग करें। मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल ने लॉकडाउन को अंतिम विकल्प के रूप में माना है। उन्होंने बैठक लेकर समीक्षा लेना भी प्रारंभ कर दिया है और कोरोना से डरने की बजाय सभी को सतर्क रहने कहा है।
हम सभी को भी चाहिए कि मुख्यमंत्री की बातों पर गौर करें और कोरोना प्रोटोकॉल का पालन कर अपने शहर या राज्य में लॉकडाउन जैसी समस्या को उत्पन्न न करें। हम जानते हैं कि पहली और दूसरी लहर में लॉकडाउन के बीच कोरोना का जब खौफ था, तब हमारे प्रदेश के मुख्यमंत्री ने अप्रवासी मजदूरों को लाने और अन्य राज्य के मजदूरों को उनके प्रदेश भेजने में कोई चूक या देरी नहीं की थी। भीषण धूप और गर्मी में राज्य के सीमावर्ती जिलों में छांव, खान-पान से लेकर नंगे पांवों में चप्पलें, मजदूरों से लेकर छात्रों के लिए रेल और बसों की व्यवस्था, ऑक्सीजन सिलेण्डरों के साथ प्रत्येक जिलों में भोजन वितरण तथा राशन दुकानों से खाद्यान की अतिरिक्त व्यवस्था सुनिश्चित की। गांव-गांव मनरेगा के माध्यम से मजदूरों को काम देकर, वनवासियों से वनोपज खरीदकर और राजीवगांधी किसान न्याय योजना, गोधन न्याय योजना के माध्यम से किसानों के जेब में पैसे डाले। इन सभी से छत्तीसगढ़ की अर्थव्यवस्था पर ज्यादा असर नहीं पड़ा। सामुदायिक, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र से लेकर जिला अस्पतालों में सुविधाएं बेहतर करने के साथ राज्य सरकार ने स्वास्थ्य व्यवस्था को बेहतर बनाने तथा अन्य सुविधाओं के लिए बजट राशि भी बढ़ाई। कोरोना प्रबंधन की दिशा में छत्तीसगढ़ सरकार का प्रयास अन्य राज्यों की तुलना में बेहतर ही था।
अतः हम समझ सकते हैं कि बुरे वक्त में सरकार हमारे साथ है। हमें भी चाहिए कि कोरोना से निपटने के लिए हम भी सरकार का सहयोग करे। जहां तक संभव है और आसान है वहां हम अपनी जिम्मेदारी का परिचय देते हुए जीवन के लिए जरूरी उपायों को अपनाएं। हम नियमित रूप से मास्क पहने। एक-दूसरे से 6 फीट की दूरी को अपनाते हुए भीड़ का हिस्सा न बनें। अनावश्यक घर से बाहर न निकले। सेनेटाइजर का इस्तेमाल करे और नियमित रूप से हाथ धोते रहें। कहीं भी इधर-उधर न थूके। टीका यदि नहीं लग पाया है तो दोनों डोज जरूर लगवा लें। सर्दी, खासी, बुखार या दर्द जैसी कोई लक्षण दिखे तो नजदीक के स्वास्थ्य केंद्र में अपना उपचार कराएं। कोरोना का लक्षण सामने आने पर चिकित्सकों के अनुसार दवाइयां लें और एक जिम्मेदार नागरिक बनकर होम आइसोलेशन में या अस्पताल में रहकर पूरी तरह ठीक होने तक किसी के सम्पर्क में न आये। शादी, जन्मदिन, रैली, सभा जैसे कार्यक्रमों में भीड़ न जुटाए। जीवन अनमोल है। खुशियां मनाने के और भी बहुत मौके आएंगे। आपकी सावधानी और समझदारी न सिर्फ आपकों और आपके परिवार को कोरोना होने से बचायेगी। सजग होकर व्यापारिक गतिविधियों का संचालन, परिवहन, निर्माण सहित विकास कार्यों में भी अपना योगदान सुनिश्चित कर सकते हैं। इससे देश के अर्थव्यवस्था पर न तो असर होगा और किसी की रोजी-रोटी छीनने या रोजगार जाने का खतरा भी उत्पन्न नहीं होगा। हम अपने राज्य और देश के विकास में अपनी भागीदारी तो सुनिश्चित कर पायेंगे ही, लॉकडाउन जैसी समस्या जो हमें डरा रही है उससे भी छुटकारा पा सकते हैं।
-कमलज्योति, सहायक जनसम्पर्क अधिकारी

 

आलेख: छत्तीसगढ़ के छत्तीस माह: कांटों की राह में विकास की चाह

आलेख: छत्तीसगढ़ के छत्तीस माह: कांटों की राह में विकास की चाह

अविभाजित मध्यप्रदेश के समय धान का कटोरा कहलाने वाला हमारा छत्तीसगढ़ जब से अलग राज्य के रूप में अस्तित्व में आया है, विकास की नित नई सीढियां चढ़ रहा है। विकास के इस उतार चढ़ाव में छत्तीसगढ़ के किसान, गरीब और मजदूर राज्य बनने के वर्षों बाद भी जहाँ जैसे थे वही क्यों रह गए? शायद इन सवालों का जवाब किसान और मजदूर ही दे पाएंगे।
सभी मानते हैं कि विकास हुए। सड़कें बनीं, भवन बने, लेकिन क्या हम सबका सपना यही था कि राज्य बनने के बाद हमारा छत्तीसगढ़ महानगरों की तरह विकसित हो ? जी नहीं.. दरअसल छत्तीसगढ़ राज्य बनने और बनाने के पीछे यहाँ की माटी से जुड़े सभी लोगों का सपना था कि वे अपने स्वाभिमान और आत्मसम्मान के साथ अपने राज्य में रह सकें। यहाँ रहने वाले किसानों का सपना था कि उन्हें उनकी मेहनत का सही दाम मिले। मजदूर हो या गरीब सबके मन में छत्तीसगढ़ राज्य के साथ एक अटूट विश्वास भी था कि सत्ता सम्हालने वाली सरकारें उनके साथ भेदभाव न करें और उन्हें आत्मसम्मान के साथ जीवन जीने में मदद करते हुए सुख-दुख की साथी बनें। यहाँ रहने वाले अनुसूचित जनजातियों, अनुसूचित जातियों और पिछड़ा वर्ग सहित सभी समाज के लोगों को साथ लेकर चले।
सैकड़ों सपनों के साथ बने छत्तीसगढ़ राज्य में छत्तीसगढिय़ों ने नई सरकार को सत्ता पर बिठाया। 17 दिसंबर 2018 को जब नई सरकार ने शपथ ली तो श्री भूपेश बघेल मुख्यमंत्री बने। एक किसान और जमीन से जुड़े ऐसे जुझारू नेता के मुख्यमंत्री पद पर आसीन होने से उनकी किसानी छवि से ज्यादा उनका आक्रामक स्वभाव हमेशा विरोधियों के लिये एक कांटे के जैसा बना रहा। वे छत्तीसगढिय़ों के भीतर मौजूद ठेठ छत्तीसगढिय़ा का वह भाव और छत्तीसगढ़ की परम्परा, संस्कृति, जो आधुनिक विकास और समय की चकाचौंध में कही गुम हो गयी थी, उन्हें पुनर्जीवित करना चाहते थे। वे जानते थे कि छत्तीसगढ़ का विकास बिना यहां के गरीबों, किसानों और मजदूरों को ऊपर उठाए बिना संभव ही नहीं है। वे जानते थे कि हमारे राज्य के किसान वर्षों से कर्ज में डूबे हुए हैं। धान का बेहतहाशा उत्पादन करने के बाद भी उत्पादन का सही मूल्य उन्हें नहीं मिल पा रहा है। राज्य के किसान खेती किसानी में हो रहे नुकसान की वजह से खेत बेचने में लगे हैं। वे किसानी छोड़ मजदूर बनते जा रहे हैं। गांव से परिवार बिखर रहा है। बाहर के प्रदेश जाकर किसान मजदूर बनते जा रहे हैं और राज्य की परम्परा, संस्कृति भी बिखर रही है। श्री भूपेश बघेल के मन में यह सभी बातें रही होंगी। शायद यहीं वजह है कि छत्तीसगढ़ का मुख्यमंत्री बनते ही उन्होंने किसानों के मर्म को समझा और किसी तरह का दबाव नहीं होने के बावजूद भी कुर्सी पर बैठते ही 18 लाख से अधिक किसानों का 9 हजार करोड़ रुपए ऋण माफी का, दूसरा 2500 रुपये धान खरीदी का फिर लोहंडीगुड़ा में आदिवासियों की जमीन वापसी का फैसला लिया। उन्होंने सिंचाई कर माफ करते हुए बिजली बिल भी आधा कर सभी वर्गों को बड़ी राहत पहुचाई।
किसान हित में लिया गया यह छत्तीसगढ़ सरकार का बड़ा नीतिगत निर्णय था, लेकिन इस निर्णय के विरूद्ध कुछ ऐसे कांटों की राह बिछा दी गई कि जिस पर चलना यानी छत्तीसगढ़ को एक बड़ा नुकसान उठाना था। यह एक चुनौती जैसी थी, फिर भी मुख्यमंत्री श्री बघेल ने संयम और सूझबूझ दिखाते हुए किसानों के हित में आगे कदम बढ़ाया। वे चाहते तो किसानों को लाभान्वित करने की बजाय केंद्र के नियमों का हवाला देकर कई हजार करोड़ रूपये बचा लेते, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। मुख्यमंत्री ने राजीव गांधी किसान न्याय योजना बनाई। उनकी नरवा, गरवा, घुरवा, बारी जैसी योजनाएं किसी फलदार वृक्ष की तरह प्रदेश के हर जिलें-हर गांव में अंकुरित होने लगी। गोधन न्याय योजना से रोजगार और पर्यावरण, पशु संरक्षण को नई दिशा मिली।
मुख्यमंत्री श्री बघेल के नेतृत्व में छत्तीसगढ़ विकास की राह में तब भी पूरी गति से चलायमान था, जब विश्वव्यापी कोरोना के कहर से पूरे विश्व की अर्थव्यवस्था कराह रही थी। स्वास्थ्य सुविधाओं को बेहतर बनाने के साथ कोरोना से निपटने की हर संभव कोशिश की गई। पहली और दूसरी लहर में उपजे संकट को दूर करने में सरकार ने कई अहम फैसले लिए। यह वह समय था, जब लॉकडाउन होने से किसानों के पास पैसों का संकट उठ खड़ा हुआ। इस विपरीत समय में भी मुख्यमंत्री ने राजीव गांधी न्याय योजना और गोधन न्याय योजना के माध्यम से किसानों और गौ-पालकों की जेब में पैसे डाले और वनोपज संग्रहण, मनरेगा से समय पर राशि भुगतान कर ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाकर छत्तीसगढ़ की अर्थव्यवस्था को गतिशील बनाए रखा। कोविडकाल में राज्य में उपचार हेतु मेडिकल उपकरणों के उत्पादन को प्राथमिकता के साथ कोविड प्रबंधन हो या बाहर से आने वाले मजदूरों को सुरक्षित घर तक पहुंचाने का काम, मुख्यमंत्री ने यहां भी अपनी दक्षता साबित की। उन्होंने परिवारों के लिए नि:शुल्क राशन की व्यवस्था सुनिश्चित की। स्कूल बंद होने पर पढ़ई तुंहर दुआर के माध्यम से ऑनलाइन शिक्षा जारी रख विद्यार्थियों को तनाव से उबारा। कोविडकाल में मृत कर्मचारियों के आश्रितों को अनुकंपा नियुक्ति देने नियमों को शिथिल किया।
ऐसा नहीं कि उन्होंने सिर्फ किसानों, गौ-पालकों के लिये ही सबकुछ किया। वनवासियों के लिए भी बड़े कदम उठाये। वन अधिकार पत्र देने के साथ वनोपज संग्रहण, तेंदूपत्ता समर्थन मूल्य में इजाफा कर सुदूरवर्ती क्षेत्रों के लोगों के लिए भी आर्थिक संबलता के द्वार खोले। कृषि ऋण माफी, सिंचाई कर माफी के अलावा सिंचाई क्षमता दोगुना करने की पहल की और बोध घाट सिंचाई परियोजना सहित कई बड़ी परियोजनाओं, एनीकट, व्यपवर्तन योजनाओं पर भी अपना ध्यान केन्द्रित किया।
उन्होंने गरीबों को लक्ष्य बनाकर उनसे जुड़ी योजनाएं बनाई और राज्य के विकास में इन योजनाओं को महत्वपूर्ण माना। राज्य में संचालित मुख्यमंत्री शहरी स्लम स्वास्थ्य योजना, दाई-दीदी क्लीनिक, मुख्यमंत्री हाट बाजार क्लीनिक योजना, स्वामी आत्मानंद इंग्लिश मीडियम स्कूल योजना, मुख्यमंत्री वार्ड कार्यालय योजना, छत्तीसगढ़ महतारी दुलार योजना, पौनी-पसारी योजना, मुख्यमंत्री सुगम सड़क योजना, शहीद महेंद्र कर्मा तेंदूपत्ता संग्राहक सामाजिक सुरक्षा योजना, धरसा विकास योजना, मुख्यमंत्री वृक्षारोपण प्रोत्साहन योजना, मुख्यमंत्री सुपोषण अभियान, शहरी गरीबों को पट्टा एवं आवास, ई.पंजीयन, रामवनगमन पर्यटन परिपथ का विकास, प्रशासनिक विकेन्द्रीकरण और पिछड़े अंचलों के विकास के लिए पांच नए जिले का निर्माण, अनेक नई तहसीलों के गठन, आदिवासियों के विरूद्ध दर्ज प्रकरणों की वापसी, चिटफंड कंपनियों के खिलाफ कार्रवाई कर निवेशकों का पैसा वापस कराने सहित राष्ट्रीय स्तर पर राज्य की संस्कृति को बढ़ावा देने आदिवासी नृत्य महोत्सव का आयोजन किया। मुख्यमंत्री श्री बघेल छत्तीसगढ़ की संस्कृति, परम्परा के बड़े संरक्षक व संवाहक साबित हुए। उन्होंने तीज-त्यौहारों से लेकर यहा की सांस्कृतिक विरासत को भी अक्षुण्ण बनाये रखने की दिशा में काम किया। सार्वजनिक अवकाश घोषित कर सभी को अपने पर्व से जुड़े रहने का अवसर दिया। अधोसंरचना से जुड़े कार्यों शासकीय भवनों, सड़कों और पुलों के निर्माण कार्य भी कराए। उन्होंने गौठानों के माध्यम से स्व-सहायता समूहों को आर्थिक रूप से और भी सशक्त बनाने की दिशा में काम किया। उनके द्वारा बनाए गए उत्पादों को सी-मार्ट सहित अन्य बाजार उपलब्ध कराने के साथ कर्ज में दबे महिला समूहों के कर्ज भी माफ किया। छत्तीसगढ़ से कुपोषण मिटाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली वह चाहे आंगनबाड़ी कार्यकर्ता, सहायिका हो या फिर छत्तीसगढ़ को स्वच्छ बनाने वाली स्वच्छता दीदी, मुख्यमंत्री ने उनका मानदेय बढ़ाकर उनका मनोबल बढ़ाया। वर्षों से संविलयन की मांग करने वाले शिक्षकों का संविलयन तो किया ही, स्कूलों में शिक्षकों की सीधी भर्ती, पुलिस में जवानों की भर्ती के अलावा रोजगार के अनेक नये अवसर भी विकसित किए। आदिवासी अंचलों में शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं को बेहतर बनाने का काम किया गया है। बस्तर अंचल में सैकड़ों बंद पड़े स्कूलों को शुरू किया गया। छोटे भू-खण्डों की खरीदी, जमीन की गाइड लाइन दरों में 30 प्रतिशत की कमी जैसी कल्याणकारी कदम उठाए गए।
विकास की दिशा में छत्तीसगढ़ सरकार का कार्यकाल जैसे-जैसे आगे बढ़ता गया, चुनौतियां आती गई। लॉकडाउन में बाजार बंद होने से जीएसटी संग्रहण में फर्क आया, लेकिन बाजार खुलने के दौर में संग्रहित जीएसटी में से राज्य के हिस्से की राशि समय पर राज्य को नहीं मिलने से भी कार्य प्रभावित हुए। छत्तीसगढ़ से चावल को लेने का मामला हो या इथेनॉल, प्रधानमंत्री आवास योजना या फिर जीएसटी से जुड़ा हुआ मामला। अनेक व्यवधानों की वजह से जनहित और कल्याणकारी योजनाओं से जुड़े हुए मामलों में आगे बढऩा कांटों की राह में चलने के समान था।
एक किसान जब खेत में फसल उगाता है तो कई बार फसलों पर मौसम की मार और खड़ी फसल पर कीट-पतंगों का हमला होता है। किसान अपनी फसल बचाने कीटनाशकों का इस्तेमाल करता है। चुनौतियों से जूझते हुए किसान फसल उगा ही लेता है। ठीक वैसे ही अनेक व्यवधान और चुनौतियों के बावजूद किसान मुख्यमंत्री श्री बघेल ने राज्य के विकास में कोई कसर नहीं छोड़ी। शपथ लेते ही किसानों के कल्याण से शुरू की गई उनकी मुहिम हर चुनौतियों में भी सतत् जारी रही। देश के अन्य राज्यों की तुलना में छत्तीसगढ़ ऐसा राज्य भी है, जहां किसानों का आंदोलन भी नहीं हुआ। खेती से जुड़े वे युवा जो अपने उत्पादन का सही मूल्य नहीं मिलने पर खेती-किसानी से दूर जा रहे थे, उन्हें अब कृषि के क्षेत्र में सुनहरा भविष्य नजर आने लगा है। शायद यहीं वजह है कि वे भी अब छत्तीसगढ़ सरकार के किसान हितैषी फैसलों को देखकर खेती-किसानी से जुडऩे लगे हैं। मुख्यमंत्री श्री बघेल के नेतृत्व में छत्तीसगढ़ की सरकार ने छत्तीस माह में विकास की बुनियाद खड़ी करने के साथ धरातल पर फलीभूत भी किया है। उनके नेतृत्व में प्रदेश को अनेक राष्ट्रीय सम्मान भी हासिल हुआ और देश भर में पहचान बढ़ी।
हम सभी जानते है कि कोरोना की पहली और दूसरी लहर के बीच छत्तीसगढ़ की सरकार ने चुनौतियों के बीच 36 माह में जो-जो उपलब्ध्यिां हासिल की वह किसी से छिपी नहीं है, अब जबकि कोरोना का खतरा फिर से मंडरा रहा है। तीसरी लहर के संकेत है। ऐसे में नये साल में छत्तीसगढ़वासियों को पूरा भरोसा है कि कोरोना प्रबंधन को पुन: अपनाकर छत्तीसगढिय़ों के गौरव और आत्मसम्मान के खातिर मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल कांटों की राह में चलकर विकास और सबकों न्याय देने के साथ सशक्त बनाने की राह में सतत् आगे बढ़ेंगे और एक नवा छत्तीसगढ़ गढऩे में कामयाब होंगे।
- कमलज्योति

 

आलेख: कांग्रेस स्थापना दिवस पर विशेष, कांग्रेस का आजादी व देश के विकास में योगदान अहम!

आलेख: कांग्रेस स्थापना दिवस पर विशेष, कांग्रेस का आजादी व देश के विकास में योगदान अहम!

कांग्रेस का स्वर्णिम इतिहास देश के स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास के साथ जुड़ा हुआ है। इसका गठन सन 1885 में हुआ, जिसका श्रेय एलन ऑक्टेवियन ह्यूम को जाता है। एलेन ओक्टेवियन ह्यूम का जन्म सन1829 को इंग्लैंड मंध हुआ था। वह अंग्रजी शासन की सबसे प्रतिष्ठित 'बंगाल सिविल सेवा' में पास होकर सन 1849 में ब्रिटिश सरकार के एक अधिकारी बने।सन 1857 की गदर के समय वह इटावा के कलक्टर थे। लेकिन ए ओ ह्यूम ने खुद ब्रटिश सरकार के खिलाफ आवाज़ उठाई और सन1882 में पद से अवकाश ले लिया और कांग्रेस यूनियन का गठन किया। उन्हीं की अगुआई में मुंबई में पार्टी की पहली बैठक हुई थी। शुरुआती वर्षों में कांग्रेस पार्टी ने ब्रिटिश सरकार के साथ मिल कर भारत की समस्याओं को दूर करने की कोशिश की और इसने प्रांतीय विधायिकाओं में हिस्सा भी लिया। लेकिन सन1905 में बंगाल के विभाजन के बाद पार्टी का रुख़ कड़ा हुआ और अंग्रेज़ी हुकूमत के ख़िलाफ़ आंदोलन शुरु हए।इसी बीच महात्मा गाँधी भारत लौटे और उन्होंने ख़िलाफ़त आंदोलन शुरु किया। शुरु में बापू ही कांग्रेस के मुख्य विचारक रहे। इसको लेकर कांग्रेस में अंदरुनी मतभेद गहराए। चित्तरंजन दास, एनी बेसेंट, मोतीलाल नेहरू जैसे नेताओं ने अलग स्वराज पार्टी बना ली।साल 1929 में ऐतिहासिक लाहौर सम्मेलन में जवाहर लाल नेहरू ने पूर्ण स्वराज का नारा दिया। पहले विश्व युद्ध के बाद पार्टी में
महात्मा गाँधी की भूमिका बढ़ी, हालाँकि वो आधिकारिक तौर पर इसके अध्यक्ष नहीं बने, लेकिन कहा जाता है कि सुभाष चंद्र बोस को कांग्रेस से निष्कासित करने में उनकी मुख्य भूमिका थी।स्वतंत्र भारत के इतिहास में कांग्रेस सबसे मज़बूत राजनीतिक ताकत के रूप में उभरी। महात्मा गाँधी की हत्या और सरदार पटेल के निधन के बाद जवाहरलाल नेहरु के करिश्माई नेतृत्व में पार्टी ने पहले संसदीय चुनावों में शानदार सफलता पाई और ये सिलसिला सन 1967 तक लगातार चलता रहा। पहले प्रधानमंत्री के तौर पर जवाहर लाल नेहरू ने धर्मनिरपेक्षता, आर्थिक समाजवाद और गुटनिरपेक्ष विदेश नीति को सरकार का मुख्य आधार बनाया जो कांग्रेस पार्टी की पहचान बनी।नेहरू की अगुआई में सन1952, सन1957 और सन1962 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस ने अकेले दम पर बहुमत हासिल करने में सफलता पाई। सन1964 में जवाहरलाल नेहरू के निधन के बाद लाल बहादुर शास्त्री के हाथों में कमान सौंप गई लेकिन उनकी भी सन 1966 में ताशकंद में रहस्यमय हालात में मौत हो गई। इसके बाद पार्टी की मुख्य कतार के नेताओं में इस बात को लेकर ज़ोरदार बहस हुई कि अध्यक्ष पद किसे सौंपा जाए। आखऱिकार पंडित नेहरु की बेटी इंदिरा गांधी के नाम पर सहमति बनी।देश की आजादी के संघर्ष से जुड़े सबसे मशहूर और जाने-माने लोग इसी कांग्रेस का हिस्सा थे।गांधी-नेहरू से लेकर सरदार पटेल और राजेंद्र प्रसाद तक आजादी की लड़ाई में आम हिंदुस्तानियों की नुमाइंदगी करने वाली पार्टी ने देश को एकता के सूत्र में बांधने की कोशिश की थी।एलेन ओक्टेवियन ह्यूम सन1857 के गदर के वक्त इटावा के कलेक्टर थे। ह्यूम ने खुद ब्रटिश सरकार के खिलाफ आवाज उठाई और 1882 में पद से अवकाश लेकर कांग्रेस यूनियन का गठन किया। उन्हीं की अगुआई में बॉम्बे में पार्टी की पहली बैठक हुई थी. व्योमेश चंद्र बनर्जी इसके पहले अध्यक्ष बने। शुरुआती वर्षों में कांग्रेस पार्टी ने ब्रिटिश सरकार के साथ मिलकर भारत की समस्याओं को दूर करने की कोशिश की और इसने प्रांतीय विधायिकाओं में हिस्सा भी लिया लेकिन 1905 में बंगाल के विभाजन के बाद पार्टी का रुख कड़ा हुआ और अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ आंदोलन शुरू हुए।दादाभाई नौरोजी और बदरुद्दीन तैयबजी जैसे नेता कांग्रेस के साथ आ गए थे।आजादी के बाद सन1952 में देश के पहले चुनाव में कांग्रेस सत्ता में आई। सन1977 तक देश पर केवल कांग्रेस का शासन था।लेकिन सन 1977 में हुए चुनाव में जनता पार्टी ने कांग्रेस से सत्ता की कुर्सी छीन ली थी। हालांकि तीन साल के अंदर ही सन1980 में कांग्रेस वापस गद्दी पर काबिज हो गई।सन 1989 में कांग्रेस को फिर हार का सामना करना पड़ा।दादा भाई नौरोजी 1886 और 1893 में कांग्रेस के अध्यक्ष रहे। सन1887 में बदरुद्दीन तैयबजी तो सन1888 में जॉर्ज यूल कांग्रेस के अध्यक्ष बने थे।सन1889 से सन1899 के बीच विलियम वेडरबर्न, फिरोज़शाह मेहता, आनंदचार्लू, अल्फ्रेड वेब, राष्ट्रगुरु सुरेंद्रनाथ बनर्जी, आगा खान के अनुयायी रहमतुल्लाह सयानी, स्वराज का विचार देने वाले वकील सी शंकरन नायर, बैरिस्टर आनंदमोहन बोस और सिविल अधिकारी रोमेशचंद्र दत्त कांग्रेस अध्यक्ष रहे।इसके बाद हिंदू समाज सुधारक सर एनजी चंदावरकर, कांग्रेस के संस्थापकों में शुमार दिनशॉ एडुलजी वाचा, बैरिस्टर लालमोहन घोष, सिविल अधिकारी एचजेएस कॉटन, गरम दल व नरम दल में पार्टी के टूटने के वक्त गोपाल कृष्ण गोखले, वकील रासबिहारी घोष, शिक्षाविद मदनमोहन मालवीय, बीएन दार, सुधारक राव बहादुर रघुनाथ नरसिम्हा मुधोलकर, नवाब सैयद मोहम्मद बहादुर, भूपेंद्र नाथ बोस, ब्रिटेन के हाउस ऑफ लॉर्ड्स में पहले भारतीय सदस्य बने एसपी सिन्हा, एसी मजूमदार, पहली महिला कांग्रेस अध्यक्ष एनी बेसेंट, सैयद हसन इमाम और नेहरू परिवार के मोतीलाल नेहरू सन 1900 से सन 1919 के बीच कांग्रेस अध्यक्ष रहे।सन 1915 में अफ्रीका से लौटकर भारत आए मोहनदास करमचंद गांधी का प्रभाव कांग्रेस की विचारधारा व आंदोलन तय करने में सन1920 के आसपास से साफ दिखना शुरू हो गया था।जो गांधी के जीवन के बाद तक भी बना हुआ है। सन1920 से भारत की आज़ादी अर्थात सन 1947 के बीच के युग में कांग्रेस अध्यक्ष पंजाब केसरी लाला लाजपत राय थे, जिन्होंने सन1920 के कलकत्ता अधिवेशन की अध्यक्षता की। स्वराज संविधान बनाने में अग्रणी रहे सी विजयराघवचारियार, जामिया मिल्लिया के संस्थापक हकीम अजमल खान, देशबंधु चितरंजन दास, मोहम्मद अली जौहर, शिक्षाविद मौलाना अबुल कलाम आज़ाद कांग्रेस के अध्यक्ष रहे। सन1924 में बेलगाम अधिवेशन की अध्यक्षता महात्मा गांधी ने की थी और यहां से कांग्रेस के ऐतिहासिक स्वदेशी, सविनय अवज्ञा और असहयोग आंदोलनों की नींव पड़ी थी। सरोजिनी नायडू, मद्रास के एडवोकेट जनरल रहे एस श्रीनिवास अयंगर, मुख्तार अहमद अंसारी कांग्रेस अध्यक्ष रहे। गांधी के अनुयायी जवाहरलाल नेहरू सन 1929 में पहली बार कांग्रेस अध्यक्ष बने थे सरदार वल्लभभाई पटेल, नेली सेनगुप्ता, राजेंद्र प्रसाद, नेताजी सुभाषचंद्र बोस और गांधी के अनुयायी जेबी कृपलानी भारत को आज़ादी मिलने तक कांग्रेस अध्यक्ष रहे।सन1948 और सन 1949 में पट्टाभि सीतारमैया कांग्रेस के अध्यक्ष रहे और यही वह साल था जब गांधी की हत्या हो चुकी थी. महात्मा गांधी का प्रभाव आज तक भी भारतीय राजनीति पर है, लेकिन उनकी हत्या के बाद कांग्रेस का नेहरू युग शुरू हुआ। पहले प्रधानमंत्री बन चुके पंडित जवाहर लाल नेहरू के समय में जिस साल संविधान लागू हुआ ।सन 1950 में कांग्रेस के अध्यक्ष साहित्यकार पुरुषोत्तमदास टंडन थे।सन1951 से सन 1954 तक खुद नेहरू अध्यक्ष रहे। पंडित नेहरू युग में 1955 से सन19 59 तक यूएन धेबार कांग्रेस के अध्यक्ष रहे। सन 1959 में पहली बार कांग्रेस अध्यक्ष इंदिरा गांधी बनी थी।सन 1960 से सन 1963 तक नीलम संजीव रेड्डी, नेहरू के निधन के सन 1964 से सन19 67 तक कामराज कांग्रेस अध्यक्ष रहे। हालांकि नेहरू का निधन 1964 में हो चुका था, लेकिन कांग्रेस का अगला इंदिरा गांधी युग लाल बहादुर शास्त्री की मौत के बाद शुरू होता है।सन 1966 में पहली बार देश की पहली और इकलौती महिला प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी बनीं। कामराज के साथ उनका सत्ता संघर्ष काफी चर्चित रहा। इसके बाद ही इंदिरा की लीडरशिप और उनके 'आयरन लेडी' होने के ख्याति मिलने लगी। इंदिरा गांधी के प्रभाव के समय में सन 1968से सन 1969 तक निजालिंगप्पा, 1970से सन 1971 तक बाबू जगजीवन राम ,1972से सन 1874 तक शंकर दयाल शर्मा और सन 1975 से सन 1977 तक देवकांत बरुआ कांग्रेस अध्यक्ष रहे।
सन1977 से सन1978 के बीच केबी रेड्डी ने कांग्रेस को संभाला लेकिन इमरजेंसी के बाद कांग्रेस टूटी तो सन 1978 में इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस की अध्यक्ष वे स्वयं बनीं।कुछ समय को छोड़कर 1984 में अपनी हत्या के पहले तक इंदिरा ही अध्यक्ष रहीं। कांग्रेस ने करीब 15 साल का इंदिरा गांधी युग देखा और इसके बाद राजीव गांधी युग शुरू हुआ, कांग्रेस अध्यक्ष इंदिरा गांधी की हत्या के बाद राजीव गांधी प्रधानमंत्री भी बने और सन1985 में कांग्रेस के अध्यक्ष भी बन गए थे। जब प्रधानमंत्री व कांग्रेस अध्यक्ष राजीव गांधी की हत्या हुई तब फिर कांग्रेस के सामने अध्यक्ष को लेकर संकट खड़ा हो गया था,क्योंकि शुरुआत में सोनिया गांधी ने सक्रिय राजनीति में आने में रुचि नहीं दिखाई थी।इसी कारण सन1992 से सन1996 तक पीवी नरसिम्हाराव ने कांग्रेस का नेतृत्व किया ।सन 1996 से सन 19 98 तक गांधी परिवार के वफादार सीताराम केसरी अध्यक्ष रहे।सोनिया गांधी का सक्रिय राजनीति में पदार्पण हुआ और सन1998 से सन 2017 तक करीब 20 वर्षो तक सोनिया ही कांग्रेस की अध्यक्ष रहीं।राहुल गांधी को सन 2017 में पार्टी की कमान सौंपी गई, लेकिन सन 2019 के आम चुनावों में बड़ी हार के बाद राहुल गांधी ने अध्यक्ष पद छोडऩे की पेशकश की और कहा था कि कांग्रेस अध्यक्ष गांधी परिवार के बाहर के नेता को होना चाहिए।लेकिन इसपर सहमति नही हुई। तबसे कार्यवाहक अध्यक्ष के रूप में सोनिया गांधी ही ने कांग्रेस का नेतृत्व कर रही है। सन1991,सन 2004, सन2009 में कांग्रेस ने दूसरी पार्टियों के साथ मिलकर केंद्र की सत्ता हासिल की।आजादी के बाद कांग्रेस कई बार विभाजित हुई। लगभग 50 नई पार्टियां इस संगठन से निकल कर बनीं। इनमें से कई निष्क्रिय हो गए तो कईयों का भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और जनता पार्टी में विलय हो गया। कांग्रेस का सबसे बड़ा विभाजन सन1967 में हुआ। जब इंदिरा गांधी ने अपनी अलग पार्टी बनाई जिसका नाम कांग्रेस (आर) रखा। सन 1971 के चुनाव के बाद चुनाव आयोग ने इसका नाम भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस कर दिया।राष्ट्रीय स्तर पर पार्टी का काम देखना एआईसीसी की जिम्मेदारी होती है. राष्ट्रीय अध्यक्ष और उपाध्यक्ष के अलावा पार्टी के महासचिव, खजांची, पार्टी की अनुशासन समिती के सदस्य और राज्यों के प्रभारी इसके सदस्य होते हैं.हर राज्य में कांग्रेस की ईकाई है जिसका काम स्थानीय और राज्य स्तर पर पार्टी के कामकाज को देखना होता है।

डॉ श्रीगोपाल नारसन एडवोकेट
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार है)

 

छत्तीसगढ़ मॉडल से बदल रही गांव-किसानों की तस्वीर और तकदीर

छत्तीसगढ़ मॉडल से बदल रही गांव-किसानों की तस्वीर और तकदीर

किसान और खेती छत्तीसगढ़ की असल पूंजी हैं। इनकी बेहतरी और खुशहाली से ही राज्य को समृद्ध और खुशहाल बनाया जा सकता है। इस मर्म को समझकर मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने सत्ता की बागडोर संभालते ही किसानों के हित में क्रांतिकारी फैसले लिये। खेती-किसानी, गांव और ग्रामीणों को सहेजने का जतन किया। इसी का परिणाम है कि नया छत्तीसगढ़ मॉडल तेजी से आकार ले रहा है। जिसके चलते मुरझायी खेती लहलहा उठी है और गांव गतिमान हो गए हैं। छत्तीसगढ़ मॉडल राज्य की ग्रामीण अर्थव्यवस्था अब तेजी से पुष्पित और पल्लवित होकर इठलाने लगी है। गांव, ग्रामीणों और किसानों की तस्वीर और तकदीर में सुखद बदलाव दिखाई देने लगा।
छत्तीसगढ़ सरकार की गांव, गरीब, किसान, व्यापार और उद्योग हितैषी नीतियों से समाज के सभी वर्गों में खुशहाली है। छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा धान और तेंदूपत्ता की देश में सबसे अधिक कीमत पर खरीदी, किसानों की कर्ज माफी, सिंचाई कर की माफी, सुराजी गांव योजना, राजीव गांधी किसान न्याय योजना और गोधन न्याय योजना के जरिए ग्रामीण अर्थव्यवस्था को नई जिंदगी मिली है। इसके चलते छत्तीसगढ़ के बाजारों में रौनक बरकरार है। दरअसल छत्तीसगढ़ सरकार ने जो नया आर्थिक मॉडल अपनाया है, उसमें ग्रामीण विकास एवं औद्योगिक विकास के माध्यम से आर्थिक विकास और रोजगार के नए अवसर सुलभ हुए हैं। तीन सालों में धान खरीदी, लघु वनोपज संग्रहण एवं किसानों को मिले प्रोत्साहन के जरिए ग्रामीणों, किसानों एवं संग्राहकों को लगभग 80 हजार करोड रुपए से अधिक की राशि मिली है। सुराजी गांव योजना नरवा, गरवा, घुरवा, बाड़ी से ग्रामीण विकास की प्रक्रिया तेज हुई है।
राज्य की खुशहाल ग्रामीण अर्थव्यवस्था का अंदाजा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि बीते तीन सालों में न सिर्फ खेती के रकबे में वृद्धि हुई है, बल्कि किसानों की संख्या में भी बढ़ोतरी हुई है। मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने राज्य के किसानों का लगभग 9 हजार करोड़ रूपए का कृषि ऋण माफ कर किसानों के चेहरे पर मुस्कान बिखेरने के साथ ही उन्हें आत्म विश्वास से भर दिया है। समर्थन मूल्य पर धान खरीदी, किसानों के ऊपर वर्षों से बकाया सिचाई कर, राज्य के 5 लाख 81 हजार से अधिक किसानों को सिंचाई के लिए निःशुल्क एवं रियायती दर पर बिजली उपलब्ध कराकर राहत दी है।
छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा शुरू की गई राजीव गांधी किसान न्याय योजना ने वास्तव में किसानों के श्रम का सम्मान करने की योजना है। इस योजना के तहत किसानों को प्रतिवर्ष लगभग 5700 करोड़ रूपए की राशि आदान सहायता तौर पर दी जा रही है। इसका सीधा लाभ खेती-किसानी और किसानों को हुआ है। प्रदेश सरकार की सुराजी गांव योजना नरवा, गरुवा, घुरवा, बाड़ी के विकास से गांव में स्वावलंबन और आर्थिक गतिविधियों को बढ़ावा मिला है। स्थानीय संसाधनों के संरक्षण और विकास में लोगों की भागीदारी बढ़ी है। गांवों में बने गौठान आजीविका के केंद्र बनते जा रहे हैं। राज्य के लगभग 7777 से अधिक गौठानों में पशुओं के संरक्षण और संवर्धन की व्यवस्था के साथ ही वहां हरे चारे का उत्पादन, महिला समूह द्वारा सामूहिक रूप से सब्जी की खेती, फलदार पौधों का रोपण और जैविक खाद के उत्पादन के साथ ही अन्य आय मूलक गतिविधियों के संचालन से ग्रामीण अर्थव्यवस्था को एक नया आधार मिला है।
राज्य में पशुधन को संरक्षित एवं संवर्धित करने गांवों में रोजगार और आर्थिक गतिविधियों के साथ ही जैविक खेती को बढ़ावा देने के लिए राज्य में गोधन न्याय योजना की शुरू की गई है। छत्तीसगढ़ सरकार इसके जरिए ग्रामीणों, किसानों और गो-पालकांे से 2 रुपये किलो में गोबर खरीदी की व्यवस्था कर ग्रामीणों और गो-पालकों को सीधा लाभ पहुंचाने का सार्थक प्रयास किया है। राज्य गौठानांे में अब तक 57 लाख क्विंटल गोबर की खरीदी की गई है, जिसके एवज में सरकार ने पशुपालकों एवं ग्रामीणों को 114 करोड़ की राशि का भुगतान किया है।
छत्तीसगढ़ राज्य में वनोपज का संग्रहण भी राज्य के वनांचल क्षेत्र के लोगों की आजीविका का बहुत बड़ा साधन रहा है। प्रदेश सरकार ने वनवासियों को वनोपज संग्रहण के जरिए लाभान्वित करने का सराहनीय प्रयास किया है। राज्य में अब 52 प्रकार के लघु वनोपज की खरीदी समर्थन मूल्य पर की जाने लगी है। लघु वनोपज के संग्रहण में छत्तीसगढ़ देश में पहले स्थान पर है। छत्तीसगढ़ सरकार कृषि आधारित उद्योगों को बढ़ावा देने का जतन कर रही है। इसके लिए नई औद्योगिक नीति में कई सहूलियतें एवं प्रावधान किए गए हैं। लघु वनोपज, औषधि एवं उद्यानिकी आधारित प्रोसेसिंग यूनिट और ग्रामीण अंचल में फूड पार्क की स्थापना से ग्रामीण अर्थव्यवस्था को और सुदृढ़ बनाने में मदद मिलेगी।
राज्य में किसानों को सिंचाई के लिए निःशुल्क एवं रियायती दर पर बिजली की उपलब्धता सुनिश्चित करने से खेती किसानी को बल मिला है। कृषि पंपों के ऊर्जीकरण के लिए प्रति पम्प एक लाख अनुदान राशि दी जा रही है। राज्य में लगभग 5 लाख 81 हजार से अधिक ऊर्जीकृत कृषि पम्प हैं। बीते 03 वर्षों में लगभग 60 हजार स्थायी कृषि पम्पों को ऊर्जीकृत किया गया है। राज्य शासन द्वारा कृषकों को वित्तीय राहत प्रदाय किये जाने के उद्देश्य से कृषक जीवन ज्योति योजना के अंतर्गत पात्र कृषकों को 3 अश्वशक्ति तक कृषि पम्प के बिजली बिल में 6000 यूनिट प्रति वर्ष एवं 3 से 5 अश्वशक्ति के कृषि पम्प के बिजली बिल में 7500 यूनिट प्रति वर्ष छूट दी जा रही है। इस छूट के अलावा कृषकों को फ्लेट रेट दर पर बिजली प्राप्त करने का विकल्प भी दिया गया है। अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के किसानों के लिए विद्युत खपत की कोई सीमा नहीं रखी गई है। वर्तमान में इस योजना के अंतर्गत 5 लाख 81 हजार किसान हितग्राही लाभान्वित हो रहें हैं।
-नसीम अहमद खान (सहायक संचालक)
 

आलेख: विनोद दुआ:पत्रकारिता के एक युग का अंत

आलेख: विनोद दुआ:पत्रकारिता के एक युग का अंत

एनडीटीवी पर ख़बरदार इंडिया विनोद दुआ लाइव ज़ायका इंडिया का जैसे चर्चित कार्यक्रमो के प्रस्तोता विनोद दुआ ने दूरदर्शन पर जनवाणी से भी पहचान बनाई थी। दूरदर्शन पर चुनाव विश्लेषण के लिए उन्हें खास प्रसिद्धि मिली। कुछ समय पहले उन्हें कोरोना संक्रमण हुआ था।उनकी बेटी मल्लिका दुआ ने पिता के निधन की जानकारी दी,तो पूरा देश स्तब्ध रह गया। विनोद दुआ को डॉक्टरों की सलाह पर पिछले दिनों दिल्ली के एक हास्पिटल के आईसीयू में भर्ती कराया गया था।मल्लिका ने कहा, हमारे निर्भय और असाधारण पिता हमारे बीच नहीं रहे।कोरोना वायरस से संक्रमित होने के चलते ही इसी साल जून माह में उन्होंने अपनी पत्नी रेडियोलॉजिस्ट पद्मावती दुआ को खो दिया था। उन्होंने एक अद्वितीय जीवन जिया, दिल्ली की शरणार्थी कॉलोनी से अपने कैरियर की शुरुआत कर वे 42 सालों तक श्रेष्ठ पत्रकारिता के शिखर तक पहुंचे और हमेशा सच के साथ खड़े रहे। देश में कोरोना की दूसरी लहर के चरम पर रहने के दौरान विनोद दुआ और उनकी पत्नी गुरुग्राम के एक अस्पताल में भर्ती कराए गए थे। उनकी सेहत तब से खराब थी और उन्हें बार-बार अस्पताल में भर्ती कराना पड़ता था और अंतत: वे जीवन की जंग हार गए।उस समय जब टेलीविजन की दुनिया दूरदर्शन तक सिमटी हुई थी और टेलीविजन पत्रकारिता का कही नाम तक नही था उस समय विनोद दुआ एक नक्षत्र की तरह उभरे थे। वे साढ़े तीन दशकों तक किसी मीडिया जगत के बीच जगमगाते रहे।दूरदर्शन पर उनकी शुरुआत ग़ैर समाचार कार्यक्रमों की ऐंकरिंग से हुई थी, मगर बाद में वे समाचार आधारित कार्यक्रमों की दुनिया में दाखिल हुए और छा गए। चुनाव परिणामों के जीवंत विश्लेषण ने उनकी शोहरत को आसमान तक पहुँचा दिया था। प्रणय रॉय के साथ उनकी जोड़ी ने पूरे भारत को सम्मोहित कर लिया था। विनोद दुआ का अपना विशिष्ट अंदाज़ था। इसमें उनका बेलागपन शामिल था।जनवाणी कार्यक्रम में वे मंत्रियों से जिस तरह से सवाल पूछते या टिप्पणियाँ करते थे, उसकी कल्पना करना उस ज़माने में एक असंभव सी बात हुआ करती थी।
दूरदर्शन में कोई ऐंकर किसी मंत्री को यह कहे कि उनके कामकाज के आधार पर वे दस में से केवल तीन अंक देते हैं तो ये मंत्री के लिए बहुत ही शर्मनाक बात थी। लेकिन विनोद दुआ में ऐसा कहने का साहस था। इसीलिए मंत्रियों ने प्रधानमंत्री से इसकी शिकायत करके उनके कार्यक्रम को बंद करने के लिए दबाव भी बनाया था, मगर मन्त्रीगण कामयाब नहीं हुए थे,जो विनोद दुआ के बड़े प्रभाव का प्रमाण था।विनोद दुआ ने अपना यह अंदाज़ जीवनपर्यंत नहीं छोड़ा। आज के दौर में जब अधिकांश पत्रकार और ऐंकर सत्ता की चापलूसी करते हैं, विनोद दुआ नाम का यह व्यक्ति सत्ता से टकराने में भी कभी नहीं घबराया।उन्होंने कभी इस बात की परवाह नहीं की कि सत्ता उनके साथ क्या करेगी। सत्तारूढ़ दल ने उनको राजद्रोह के मामले में फँसाने की कोशिश की गई, मगर उन्होंने लड़़ाई लड़ी और सुप्रीम कोर्ट से जीत भी हासिल की।उनका मुकदमा मीडिया के लिए भी एक राहत साबित हुआ।
हिंदी और अँग्रेज़ी दोनों भाषाओं पर दुआ साहब की अच्छीपकड़ थी।प्रणय रॉय के साथ चुनाव कार्यक्रमों में उनकी प्रतिभा पूरे देश ने देखी और उसे सराहा भी गया। त्वरित अनुवाद की क्षमता ने उनकी ऐंकरिंग को ऊंचाई तक पहुँचा दिया था।
देश की पहली हिंदी साप्ताहिक वीडियो पत्रिका परख की उनकी लोकप्रियता का प्रमाण थी। इस पत्रिका के वे न केवल ऐंकर थे बल्कि निर्माता-निर्देशक भी थे। इसके लिए उन्होंने देश भर में संवाददाताओं का जाल बिछाया और विविध सामग्री का संयोजन करके पूरे देश को मुरीद बना लिया। वे अपने सहयोगियों को भरपूर आज़ादी देते थे। वे ज़ी टीवी के लिए एक कार्यक्रम चक्रव्यूह करते थे।ये एक स्टूडियो आधारित टॉक शो था, जिसमें ऑडिएंस के साथ किसी मौज़ू सामाजिक मसले पर चर्चा की जाती थी। इस शो में विनोद दुआ के व्यक्तित्व और ऐंकरिंग का एक और रूप देखा जा सकता था।
विनोद दुआ की पत्रकारीय समझ सहारा टीवी पर उनके द्वारा प्रस्तुत किया जाने वाला कार्यक्रम प्रतिदिन भी कहा जा सकता है।इस कार्यक्रम में वे पत्रकारों के साथ उस दिन के अख़बारों में प्रकाशित ख़बरों की समीक्षा करते थे। इस कार्यक्रम में उनकी भूमिका को देखकर कोई कह ही नहीं सकता था कि ऐंकर पत्रकार नहीं है।
विनोद दुआ टीवी पत्रकारिता की पहली पीढ़ी के ऐंकर थे। उन्होंने उस दौर में ऐंकरिंग शुरू की थी, जब लाइव कवरेज न के बराबर होता था।1974 में युवा मंच और 1981 में आपके लिए जैसे कार्यक्रम प्रसारित होते थे। सन 1985 में समाचार आधारित चुनाव विश्लेषण लाइव प्रसारण शुरू हुआ और उन्होंने अपनी महारत साबित कर दी। जब डिजिटल पत्रकारिता का दौर आया तो वे बड़ी आसानी से वहाँ भी अपनी विशिष्ट पहचान बनाने में कामयाब रहे।
-डॉ श्रीगोपाल नारसन एडवोकेट


 

आलेख: देख तेरे संसार की हालत क्या हो गई भगवान, कितना बदल गया इन्सान...

आलेख: देख तेरे संसार की हालत क्या हो गई भगवान, कितना बदल गया इन्सान...

फ़िल्म नास्तिक में प्रदीप द्वारा रचित व गाये इस गाने को आज अनायास सुनते सुनते जिले की पंगु होती कानून व्यवस्था, कुकुर बिलाई वाली लड़ाई में उलझती राजनीति, भगवा के पीछे मौकापरस्त होते गद्दीदार, पुलिसिया लापरवाही के कोख से जन्मे भगवा कांड व सत्ता सुख में मदमस्त राजनेताओ के कर्मो से बने वर्तमान के हालात से हलकान परेशान जनता जनार्दन की पीड़ा में डूबा ही था कि कानो में :-
`सुनते हो शर्मा जी ` श्रीमती जी की तीखी पर प्यारी आवाज ने हमेशा की तरह मेरे बात बेबाक के चिंतन को ब्रेक लगा दिया। अच्छा खासा मैं राजनीति, भगवा और अफ़सरशाही के बीच बदलते इन्सान के बवाल पर बालिंग की सोच रहा था कि भूचाल आ गया इसके पहले कि भूचाल से तबाही आये मैंने जोर से बिगुल फूंका – ‘ हाँ जी सुन रहा हूँ जी बोलो
हमारी फटे बांस जैसी आवाज को सुन श्रीमती जी ने फरमाया- अरे आज कंल देख रहे हो जिसको देखो नारा लगा रहा भगवा के सम्मान में .......मैदान में आपने भी सुना क्या ? उसने ऐसे पूछा जैसे उसमें उसकी कोई लाटरी फंसी हो।
हाँ मैंने तुरंत बात काटी और कहा अरे पंडिताईन ये सब पुराना न्यूज है। अब चुनाव करीब है तो गरीब को लुभाने, वोट-बैंक भुनाने ये सब तो कांग्रेस भाजपाई कुछ तो करेंगे ही। तुमको गोबरहीन टुरी कंवर्धा की नई चर्चा नही बताई क्या? आज कल नया नारा आ गया है `भगवा के सम्मान में भाजपा दो फाड़ हो मैदान में `
नए नारे को सुन गुस्साते हुए चिल्ला पड़ी क्या पंडित जी आप भी कुछ भी बोलते रहते हो गोबरहीन देहाती गंवार क्या समझेगी अकबर महान और चाँउर वाले बाबा की पॉलिटिक्स दोनों के बीच न्यास एंड कम्पनी के खेल को। पंडिताईन के गुस्से को कंट्रोल करने का प्रयास करते हुए कहा पंडिताईन सुन न्यास एंड कंपनी को 10 दिसम्बर को 108 फिट का भगवा फहराने शासन प्रशासन ने जमीन दे दी अब इनके साथ पूर्व भाजपाई विधायक पंडरिया और नगरपालिका के भाजपाई नेताप्रतिपक्ष और उनकी भाजपाई टीम है और बचे भाजपाई 6 दिसम्बर को शौर्य दिवस के बहाने विश्व हिंदू परिषद के भगवा के सहारे एक तरफ हुए, तो दो फाड़ हुए न अब कौन सा गुट किसका चाटुकार हमसे न पूछियो इन सबके बीच कांग्रेस की बल्ले बल्ले है ऐसे ही चुनाव में तेली कुर्मी को टिकट नही मिलेगी तो देखना कौन कौन बनेगा विभीषण इसको आजकल गोबरहीन जैसे लोग भी समझने लगे है । अभी तो तुम भगवे झण्डे के फंदे में उलझी कबीरधाम की राजनीति और जनता के खेल को देखो ।
वैसे पंडिताईन कवर्धा की राजनीतिक हालत को देख अब तो मोदी-योगी के गाने के दिन आ गए अम्मा देख..देख..तेरा मुंडा बिगड़ा जाए..अम्मा देख..देख..` इन बोल व आज के हालात को समझो तो तुकबंदी तो ऐसे बनेगी कबीरधामवासी कैसे बरबाद हो रहे ( सियासत के फेर में), देखो लोक-तंत्र नरक-तंत्र हुआ जा रहा , देखो वोट और नोट का चक्कर चल रहा , प्रजा का दुःख-दर्द कोई समझ नहीं रहा देखो ,सब उसे खसोट रहे ,लूट रहे देखो ,कोई फहरा रहा तो कोई लहरा रहा कोई कहरा रहा , अम्मा देख तेरा मुंडा बिगड़ा जाय ..”
और अंत में :-
ख़मोशी के हैं आँगन और सन्नाटे की दीवारें ।
ये कैसे लोग हैं जिनको घरों से डर नहीं लगता ।।
-चंद्र शेखर शर्मा (पत्रकार 9425522015)
 

छत्तीसगढ़ के 36 माह : धान खरीदी का साल दर साल बन रहा नया कीर्तिमान

छत्तीसगढ़ के 36 माह : धान खरीदी का साल दर साल बन रहा नया कीर्तिमान

गढ़बो नवा छत्तीसगढ़ की परिकल्पना को साकार करने मेहनतकश किसानों-ग्रामीणों और मजदूरों के दुख-दर्द समझने वाली सरकार के रूप में छत्तीसगढ़ ने देश में एक अलग छवि बना ली है। मुख्यमंत्री बघेल के नेतृत्व में किसान हितैषी फैसलों और निर्णयों से महज 36 माह में कई उल्लेखनीय उपलब्धियां हासिल की हैं।
छत्तीसगढ़ की मौसम और जलवायु के साथ-साथ लगभग 80 प्रतिशत लोगों की खेती-किसानी पर निर्भरता को देखते हुए नई सरकार ने खेती-किसानी को लाभकारी बनाने का निर्णय लिया। खेती-किसानी में आधुनिक तौर-तरीके के इस्तेमाल और किसानों को उनकी उपज का सही मूल्य दिलाने के लिए राजीव गांधी किसान न्याय योजना के तहत इनपुट सब्सिडी देने का फैसला क्रांतिकारी सिद्ध हुआ। यही कारण है कि छत्तीसगढ़ में इन 36 माह में समर्थन मूल्य में धान खरीदी का साल दर साल नए कीर्तिमान बनते गए।
छत्तीसगढ़ में किसानों को शून्य प्रतिशत ब्याज पर खेती-किसानी के लिए सहकारी समिति से ऋण और समर्थन मूल्य पर धान खरीदी के साथ-साथ इनपुट सब्सिडी देने का परिणाम यह हुआ कि खरीफ विपणन वर्ष 2020-21 रिकॉर्ड 92 लाख मीटरिक टन धान खरीदी की गई। ऐसे किसान जो खेती-किसानी छोड़ चुके थे, वे अब खेती-किसानी की ओर लौटने लगे हैं। राज्य में कुल कृषि का रकबा बढ़कर 29.85 लाख हेक्टेयर हो गया है। किसानों की माली हालत में भी काफी सुधार हुआ है। राज्य के किसान अब बेहतर ढंग से खेती-किसानी करने लगे हैं इसकी बानगी चालू खरीफ विपणन वर्ष 2021-22 में धान बेचने के लिए किसानों के पंजीकरण से देखा जा सकता है। इस वर्ष राज्य में 24 लाख 9 हजार 453 किसानों ने पंजीयन कराया है।
छत्तीसगढ़ के इतिहास में चालू खरीफ सीजन में 105 लाख मीटरिक टन धान की समर्थन मूल्य पर खरीदी का अनुमान है। राज्य सरकार के द्वारा किसानों से न केवल खरीदी की सुनिश्चित व्यवस्था की है, बल्कि उन्हें तत्काल भुगतान की व्यवस्था भी की गई है। किसानों को उनके बैंक खातों के जरिये ऑनलाईन भुगतान किया जा रहा है। धान खरीदी को लेकर किसी भी किसान को दिक्कत न हो इसके लिए सभी कलेक्टरों को निदेश दिए गए हैं।
किसानों-ग्रामीणों की सहूलियतों को ध्यान में रखते हुए इस वर्ष 88 नवीन धान खरीदी केन्द्र प्रारंभ किए गए हैं। इस वर्ष 2 हजार 399 धान खरीदी केन्द्रों में धान उपार्जन की व्यवस्था की गई है। किसानों को धान खरीदी केन्द्रों में भीड़भाड़ और लंबी लाईन से निजात मिलेगी, वहीं परिवहन व्यय भी कम होगा। समय व पैसे की बचत भी होगी।
चालू खरीफ विपणन वर्ष 2021-22 के तहत समर्थन मूल्य पर किसानों से धान की नकद एवं लिंकिंग के माध्यम सें खरीदी एक दिसम्बर 2021 से 31 जनवरी 2022 तक तथा मक्का की खरीदी एक दिसम्बर 2021 से 28 फरवरी 2022 तक की जाएगी। खरीफ विपणन वर्ष 2021-22 के लिए औसत अच्छी किस्म के धान के लिए समर्थन मूल्य की दर, धान कॉमन 1940 रूपए प्रति क्विंटल, धान ग्रेड ए 1960 रूपए प्रति क्विंटल तथा औसत अच्छी किस्म के मक्का का समर्थन मूल्य 1870 रूपए प्रति क्विंटल का दर निर्धारित है।
राज्य सरकार द्वारा खेती-किसानी को लगातार बढ़ावा दिए जाने के फलस्वरूप इस वर्ष खरीफ सीजन में करीब 48 लाख 20 हजार हेक्टेयर से अधिक रकबे में विभिन्न् फसलों की बोनी हुई है। इनमें धान के अलावा दलहन, तिलहन, मक्का, सोयाबीन की फसल शामिल है। राज्य में 3.42 लाख हेक्टेयर में दलहन, 2 लाख हेक्टेयर में तिलहन, 1.50 लाख हेक्टेयर में साग-सब्जियों की खेती की गई है।
मुख्यमंत्री बघेल के नेतृत्व में सरकार बनते ही सर्वप्रथम किसानों के हित में फैसला लेते हुए किसानों के अल्पकालीन कृषि ऋण लगभग 10 हजार करोड़ रूपए माफ किया गया, वहीं किसानों से समर्थन मूल्य पर धान खरीदी कर अंतर की राशि सब्सिडी अनुदान राजीव गांधी न्याय योजना के माध्यम से देकर सीधे किसानों के जेब में पैसे डालने का काम किया। यही कारण है कि देश और दुनिया में आर्थिक मंदी होने के बावजूद भी छत्तीसगढ़ में इसका प्रभाव नहीं पड़ा।
कोरोना काल के दौरान भी राज्य खेती-किसानी, उद्योग-धंधे चलते रहे। सरकार द्वारा अर्थव्यवस्था को गतिमान रखने के लिए सभी सेक्टरों को विशेष रियायत और छूट दी गई है। इससे ग्रामीण के साथ-साथ शहरी अर्थव्यवस्था को मजबूती मिली। यही कारण है कि राज्य के अर्थव्यवस्था में अन्य राज्यों की तुलना में आर्थिक मंदी का कोई प्रभाव नहीं पड़ा।
सरकार की किसान हितैषी नीतियों से इन तीन सालों में छत्तीसगढ़ राज्य में खेती-किसानी खूब फली-फूली और समृद्ध हुई है। पहले साल लगभग 83 लाख मीटरिक टन धान खरीदी की गई इसी प्रकार दूसरे साल रिकॉर्ड 92 लाख मीटरिक टन धान खरीदी हुई। इस वर्ष 105 लाख मीटरिक टन धान खरीदी की उम्मीद है। सरकार की इन नीतिगत फैसलों और कार्यों से समाज के सभी वर्गो का न्याय के साथ निरंतर विकास हो रहा है। गरीब, मजदूर, किसान, व्यापारी इन सभी वर्गो के हित में किए जा रहे कार्यों से नवा छत्तीसगढ़ गढ़ने का सपना साकार हो रहा है।
-डॉ. ओम प्रकाश डहरिया
 

कीटों में सबसे लंबी जीभ वाली प्रजाति मिली....

कीटों में सबसे लंबी जीभ वाली प्रजाति मिली....

शोधकर्ताओं ने मेडागास्कर द्वीप पर पंतगे की एक नई प्रजाति का विवरण दिया है जिसकी जीभ अब तक देखे गए किसी भी पतंगे से अधिक लंबी है। इस पतंगे का नाम ज़ेंथोपन प्रैडिक्टा है और यह आर्किड के बहुत लंबे और संकरे फूलों से मकरंद चूसता है।
इस पतंगे का इतिहास बड़ा दिलचस्प है। चार्ल्स डार्विन ने इस तरह के जीव के अस्तित्व की भविष्यवाणी तब कर दी थी जब उन्होंने पहली बार एंग्रैकम सेस्क्विपेडेल नामक ऑर्किड का डील-डौल देखा था (जिसे देखकर उनके मुंह से निकला था, `अरे! कौन सा कीट इससे मकरंद चूस सकता है?`)। इसके लगभग 2 दशक बाद, 1903 में, वास्तव में ऐसा पतंगा मिला था। लेकिन तब से ही इसे एक्स. मॉरगेनी नामक प्रजाति की उप-प्रजाति ही माना जाता रहा है, जो मुख्य द्वीप पर पाया जाता है। लेकिन अब नहीं।


कई आकारिकीय और आनुवंशिक परीक्षणों के आधार पर वैज्ञानिकों का तर्क है कि पतंगे का यह संस्करण मुख्य भूभाग की प्रजाति (एक्स. मॉरगेनी) से बहुत अलग है और इसे एक स्वतंत्र प्रजाति का दर्जा मिलना चाहिए।
जंगली पतंगों और संग्रहालय में सहेजे गए नमूनों की डीएनए बारकोडिंग करते हुए शोधकर्ताओं ने पाया कि दोनों तरह के पतंगों के मुख्य जीन अनुक्रम में 7.8 प्रतिशत फर्क है। इस फर्क के चलते, मॉरगेनी पतंगे प्रेडिक्टा की अपेक्षा अन्य मुख्य द्वीप उप-प्रजातियों के अधिक निकट हैं। डीएनए बारकोडिंग जीवों में अंतर पहचानने की तकनीक है।


लेकिन जीभ के मामले में प्रेडिक्टा पतंगे बाज़ी मार लेते हैं। ज़ेंथोपन प्रेडिक्टा की सूंड औसतन 6.6 सेंटीमीटर लंबी पाई गई है। शोधकर्ताओं को प्रेडिक्टा का एक ऐसा सहेजा गया नमूना भी मिला है, जिसकी सूंड पूरी तरह फैलाने पर 28.5 सेंटीमीटर लंबी थी। यह किसी पंतगे में देखी गई सबसे लंबी जीभ है।
-स्रोत फीचर्स
 

कुछ तो सस्ता हुआ पेट्रोल,डीजल

कुछ तो सस्ता हुआ पेट्रोल,डीजल

कैबिनेट की बैठक में सरकार ने कई अहम फैसले किए हैं। इसमें धान खरीदी एक दिसंबर से,स्कूल सभी बच्चों की उपस्थिति के साथ खुलने तथा पेट्रोल व डीजल के दाम में कमी सबसे ज्यादा अहम फैसले हैं। धान खरीदी एक दिसंबर से शुरू होनी है और अभी तक बोरों की ठीक ठीक व्यवस्था नहीं हुई है। सरकार के मंत्री ने कहा था कि खरीदी के पहले बोरों की व्यवस्था हो जाएगी, लेकिन 23 नवंबर तक नहीं हुई है। इससे किसानों को परेशानी होगी लेकिन सरकार को कोई परेशानी नहीं है। वह तो कह सकती है कि बोरे केंद्र सरकार ने नहीं दिए। पिछली बार बोरा संकट होने पर सरकार ने यही कहा था। सीएम बघेल ने तो इसके लिए पीएम को चिट्ठी भी लिख दी है। अब सारी जिम्मेदारी केंद्र सरकार की है। धान खरीदी में बोरों के कारण परेशानी होती है तो उसके लिए केंद्र सरकार दोषी होगी। राज्य में रोज 20 से ज्यादा कोरोना मरीज मिलने के बाद भी सभी स्कूलों को पूरी उपस्थिति के साथ खोलने का फैसला किया गया है। शिक्षा की दृष्टि से यह ठीक कहा जा सकता है लेकिन बच्चों को कोरोना से बचाने के लिए की गई सुविधाओं की द़ष्टि से यह ठीक नहीं कहा जा सकता। यह सरकार ने अच्छा किया है कि आनलाइन पढ़ाई बंद नहीं की है। इससे जो पालक अपने बच्चों को स्कूल नहीं भेजना चाहते वह घर में पढ़ाई करवा सकते हैं। पालक अपने बच्चों के लिए कोई रिस्क लेना नहीं चाहते हैं, फिर बच्चों को टीका भी नहीं लगा है। जहां तक पेट्रोल-डीजल के दाम कम करने का सवाल है तो सरकार अपने वादे के अनुरूप पड़ोसी राज्या की तुलना में कुछ पैसे कम किया है। सरकार ने पेट्रोल में 77 -78 पैसे तथा डीजल में 1.45-1.47 रुपए कम किए हैं। वादे के अनुरूप पेट्रोल मप्र महाराष्ट्र से से छह व आठ रूपए सस्ता है। ओडिशा व झारखंड में चार पैसा, तीन रुपए सस्ता है। इसी तरह डीजल मप्र,ओडिशा व झारखंड में छत्तीसगढ़ से सस्ता है। केंद्र सरकार ने तो पेट्रोल व डीजल पर कुल मिलाकर 15 रुपए की कमी की है, इस हिसाब से देखा जाए तो भूपेश सरकार ने बहुत ही कम दाम घटाए हैं। माना जाता है कि ज्यादातर राज्यों ने पांच से छह रुपए की कमी है। जबकि छत्तीसगड़ में तो तीन रुपए की कमी भी नहीं की गई है। इसके बाद भी सरकार को एक हजार करोड़ रुपए का घाटा हो रहा है तो यह भी सोचना चाहिए कि इससे जनता को फायदा हो रहा है। विपक्ष और लोग तो कहेंगे ही कि राज्य सरकार ने जनता को ज्यादा फायदा नहीं पहुंचाया। भाजपा तो पूछेगी ही कि पेट्रोल डीजल में 15 रुपए की कटौती को ऊंट के मुंह में जीरा कहा गया था तो दो रुपए तेईस पैसे की कमी को क्या कहा जाना चाहिए। 

आलेख: संगीत की नि:स्वार्थ सेवा और समर्पण के प्रतीक हैं-पद्ममश्री मदन चौहान

आलेख: संगीत की नि:स्वार्थ सेवा और समर्पण के प्रतीक हैं-पद्ममश्री मदन चौहान

भारत सरकार अपने नागरिकों को उनके अद्वितीय योगदान के लिए विभिन्न सम्मान प्रदान करती है । विगत कुछ वर्षों में पद्मसम्मान भारत सरकार द्वारा ऐसे कुछ महत्वपूर्ण और बिरले लोगों को प्रदान किया गया है, जिन्होंने अपनी मिट्टी से जुड़कर, ह्रदयतल की गहराइयों से, नि:स्वार्थ, निष्काम भाव से अपना कर्म किया है, साधना की है, सेवा की है ।
इसी कड़ी में भारत सरकार द्वारा वर्ष-2020 के लिए प्रदत्त पद्मसम्मानों में एक नाम छत्तीसगढ़ के लोकप्रिय संगीतकार मदन चौहान का भी है । मदन चौहान जी की गायकी एक उन्मुक्त बहते झरनें की तरह है, जिसमें प्रवाह है, सादगी है, मौलिकता है, फकीराना अंदाज है, तो साधना की बानगी भी । संगीत का हर रंग फिर चाहे वो भजन हो, गजल या कव्वाली मदन चौहान जी उसे अपने अंदाज में ढाल लेते है ।
अपनी संगीत यात्रा की शुरुआत का जिक्र करते मदन जी कहते है कि 10 वर्ष की उम्र में वे डब्बे बजाते थे, गरीबी का दौर था, डब्बे से शुरु हुआ सिलसिला ढोलक तक आ पहुंचा, ढोलर बजाते-बजाते आर्केस्ट्रा की तरफ आकर्षित हुए, उम्र का तकाजा था । इसके बाद कुछ लोगों ने सलाह दी कि अगर तबला बजाएं तो बेहतर होगा । तो फिर वहां से तबले की शुरुवात हुई । तबले की आरंभिक शिक्षा आपने आकाशवाणी के कन्हैया लाल भट्ट से और जगन्नाथ भट्ट से ली । आप अजराड़ा घराने के ख्याति लब्ध उस्ताद काले खां को गंड़ाबंध शागिर्द बने । तबला सीखने और सिद्धहस्त होने के बावजूद मदन जी के अंतस में एक गायक कंठ छिपा था, जिसमें गायकी के प्रति निश्चल इच्छा शक्ति थी । पहले-पहल दूसरे लोगों की तरह उन्हें भी फिल्मी संगीत ने प्रभावित किया । महान संगीतकार नौशाद, हेमन्त कुमार की धुनों से वे बंध से गए थे । उसके बाद उन्हें शंकर जयकिशन, मदनमोहन रोशन, सरदार मलिक आदि संगीतकारों ने भी काफी प्रभावित किया ।
मुलत: रायपुर शहर से ताल्लुक रखने वाले मदन जी उस दौर को याद करते कहते हैं कि काफी पिछड़ा व देहाती इलाका था । बिजली भी नहीं थी, सिर्फ रेडियों में सुकर संगीता का आनंद मिलता था । अपनी शिक्षा के बारें में बताते मदन जी कहते हैं कि उन्होंने मैट्रिक तक पढ़ाई की और फिर नौकरी की तलाश में लग गए, लेकिन साथ ही संगीत के शौक ने उन्हें एक मुकाम दिया । मदन जी ने आरम्भिक दौर में संगीत में संगत की फिर रुख किया आर्केस्ट्रा का । आर्केस्ट्रा और फिर तमाम संगीत समूहों के साथ संगत करते-करते आकाशवाणी में भी अपनी जगह बनाई । पुराने दौर को याद करते मदन जी रोचक संस्मरण सुनाते कहते है कि खमतराई में स्थित ट्रांसमीटर से ही प्रसारण होता था आकाशवाणी का । स्टूडियों नहीं बना था । उस दौर में साजों सामान भी कम था, फिर भी रेडियो की अपनी दुनिया थी, लोग रेडियों में आने को लालायित रहते थे ।
मदन जी गर्व से कहते है कि उन्हें सही पहचान रेडियो से ही मिली । अपनी पहली रिकार्डिंग को याद करते वे कहते हैं कि उन्होंने लोकगायक स्व. शेख हुसैन, रहमान शरीफ और निर्मला इंगले जी के साथ संगत की थी और छत्तीसगढ़ के कोने-कोने में अपनी प्रस्तुति दी है । उन्होंने अपने लोगों के बीच अपना संगीत प्रस्तुत कर गर्व का अनुभव किया, नि:स्वार्थ भाव से लोगों का मनोरंजन करते रहे । लोक संगीत में मदन जी ने काफी काम किया पर सुगम संगीत में नामचीन कलाकारों के साथ संगत की जैसे- राहत अली, चंद्रकांत गधर्व, पुष्पा हंस और अहमद हुसैन मोहम्मद हुसैन अच्छे और बड़े कलाकारों के साथ संगत करते-करते मदन जी का मन गायकी की तरफ मुड़ गया । गाना तो ह्रदय की गहराइयों में था ही, रुहानियत सी की अच्छा संगीत सुनते थे तो बस वही से शुरुवात हुई गाने की । तबले के साथ-साथ अब गाना सुकुन देने लगा, गजलों की तरफ उनका रुझान काफी था । गायन, वादन के साथ-साथ मदन जी अपने साजो कि रख-रखाव के लिए भी जाने जाते हैं, वे कहते हैं कि साज को बेहतर ढंग से रखना और उसके बारे में जानना बेहद जरुरी है ।
संगीत में साधना, तपस्या, समर्पण के साथ मदन जी ने समाज को बहुत कुछ दिया । धर्म-निरपेक्षता की मिसाल पेश करते भजन भी गाए, कव्वाली भी गाई, गुरुवाणी भी सुनाई । बच्चों को संगीत की तालीम लगातार देते रहे । 74 वर्ष की आयु में भी सक्रिय मदन जी कहते है कि क्षेत्र की प्रतिभाएं आगे आएं और छत्तीसगढ़ का नाम रोशन करें, इसके लिए सदैव तत्पर रहते हैं । संगीत में निर्गुण रंग को अपनी अनोखी अभिव्यक्ति देते मदन जी ने सूफीयाना अंदाज को भी अपनाया । कबीर, अमीर खुसरों और मध्यकालीन संत कवियों की रचनाओं का निरंतर गायन किया । अपने बंदिशे खुद तैयार की, अपनी मौलिकता और सादगी के साथ पद्मजैसे उच्च सम्मान के अतिरिक्त आपको कला रत्न, सूफी तारीख, संगीत विभूति जैसे प्रादेशिक सम्मान भी मिले । आपके प्रतिष्ठित दाउ रामचंद्र देशमुख सम्मान भी मिला । सन् 2017 में गायन में आजीवन उपलब्दियों के लिए उन्हें चक्रधर सम्मान राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के करकमलों से प्राप्त हुआ ।
नि:संदेह मदन चौहान ने अपने संगीत साधना से सुरों को, साजों को, संगीत को नए आयाम दिए हैं । संगीत की निस्वार्थ सेवा और समर्पण से उन्होंने नई पीढ़ी के लिए प्रेरणा प्रदान की है ।
- परेश कुमार राव,
लेखक वरिष्ठ उद्घोषक, आकाशवाणी केन्द्र, रायपुर (ये लेखक के अपने विचार हैं)

 

आलेख: नेताओं की भी हो कोई लक्ष्मण रेखा- लक्ष्मीकांता चावला

आलेख: नेताओं की भी हो कोई लक्ष्मण रेखा- लक्ष्मीकांता चावला

जनता को जानना चाहिए कि उनके जनप्रतिनिधियों को कई विशेष अधिकार मिलते हैं। अगर कोई सरकारी अधिकारी उनको पूरा मान-सम्मान न दे या उनका उचित-अनुचित आदेश न माने तो उसे जनप्रतिनिधि की मानहानि मानकर विधानसभा या संसद के स्पीकर के समक्ष शिकायत की जा सकती है। स्पीकर महोदय बड़े से बड़े अधिकारी को बुलाकर डांट भी सकते हैं, दंड भी दिलवा सकते हैं। शायद इसीलिए जनप्रतिनिधियों का अपने अधिकारों के प्रति विवेकहीन दुराग्रह बन गया है। हाल ही में गुरदासपुर जिले के एक विधायक ने उस व्यक्ति को बुरी तरह थप्पड़ जड़ दिए, जिसने अपने अधिकार का प्रयोग करते हुए अपने विधायक से यह पूछा था कि उनके क्षेत्र में आज तक क्या विकास किया गया। विधायक ने उत्तर थप्पड़ और घूंसे से दिया। ऐसे ही जब मामले की खूब चर्चा हुई, विधायक की निंदा हुई तो स्वांग रचा गया कि प्रश्न करने वाले युवक की शब्दावली अशिष्ट थी। विडंबना कि उस युवक ने माफी मांगी।
कुछ समय पहले इंदौर के एक सत्तापति राजनेता ने जो बाद में विधायक भी बना, एक इंजीनियर को क्रिकेट के बैट से पीट दिया। थोड़ी-सी नाक बचाने के लिए केंद्रीय नेतृत्व में उसे एक कारण बताओ नोटिस दिया, पर वह राजनीति के बड़े खिलाड़ी का बेटा था। फिर उसके बेटे को पार्टी से निकालने या दंड देने का साहस किसी ने न किया।
ऐसी ही दुर्घटना महाराष्ट्र में भी हुई। वहां भी सत्तापतियों के हाथों एक वरिष्ठ अधिकारी पीटा गया। उसके मुंह पर कीचड़ ही पोत दिया। आखिर क्या अधिकार केवल उनके ही हैं, जिनको अधिकार आम जनता ने दिया। विधायकों और सांसदों को सत्तापति बनाने के लिए जिन्होंने मतदान किया, दुख-सुख में संरक्षण के लिए अपना प्रतिनिधि बनाया, वही इतने उद्दंड हो जाएं कि जब चाहें, जिसे चाहें अपनी सत्ता के नशे में पीट दें, अपमानित करें या मुंह पर कीचड़ या कालिख पोत दें। डराने और धमकाने में भी हमारे जनप्रतिनिधि अनेकश: सभी सीमाएं लांघ जाते हैं। अभी-अभी हरियाणा से एक सांसद ने तो नेताओं का घेराव करने वाले किसानों को यह धमकी भी दे दी कि उनकी आंखें निकाल देंगे। हाथ तोड़ देंगे।
बहुत से मतदाता पूछते हैं कि अगर नेताजी चार या उससे ज्यादा निर्वाचन क्षेत्रों से वोट ले सकते हैं तो हम एक से ज्यादा स्थानों पर वोट क्यों नहीं डाल सकते। इसका उत्तर मिलना भी नहीं, मिला भी नहीं। अगर निष्पक्ष ढंग से सोचा जाए तो जो नेता एक से अधिक सीटों पर चुनाव लड़ता है और सभी जगहों से विजयी होने के बाद त्यागपत्र देता है तो वहां पुन: चुनाव करवाने का खर्च सरकार पर क्यों डाला जाए। नियम तो यह होना चाहिए कि वह सारा खर्च वही विधायक या सांसद दे, जिसने एक से ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़ा और पुन: चुनाव करवाने की स्थिति के लिये मजबूर किया।
सवाल है कि जहां न नेता का वोट है और न उसे उस क्षेत्र की कोई जानकारी है, वहां से चुनाव कैसे लड़ सकता है? आज तक कोई भी सरकार या चुनाव आयोग यह नियम नहीं बना सका कि जनता का प्रतिनिधि चुनाव जीतने के बाद अपने चुनाव क्षेत्र में ही रहे, जिससे जनता की सुख-सुविधाओं का ध्यान रख सके, उनकी कठिनाइयां दूर कर सके। हमारे देश के सैकड़ों ऐसे विधायक व सांसद हैं जो चुनाव जीतने के बाद अपने क्षेत्र से लगभग गायब रहते हैं। वे जानते हैं कि शायद ही वे इस क्षेत्र में चुनाव की मार्केट में दोबारा उतरें अन्यथा जिस पार्टी को उनकी जरूरत होगी वे स्वयं ही कोई सुरक्षित क्षेत्र चुनाव लडऩे के लिए दे देगी। जनता ठगी-ठगी सी रह जाती है। चुनावों में टिकट देने वाले जानते हैं कि यह पैराशूटी उम्मीदवार जनता के लिए नहीं चुने, अपितु संसद या विधानसभा में हाथ खड़े करने के लिए चुने हैं।
सर्वविदित है कि बहुत से जनप्रतिनिधि पंचायत से लेकर संसद तक जनता से दूर रहते हैं। विधानसभाओं और संसद में कभी उन्होंने जनता के हित के लिए मुंह नहीं खोला। बहुत से तो शायद यह भी नहीं जानते होंगे कि काल अटेंशन और स्थगन प्रस्ताव कैसे बनाए, दिए और पेश किए जाते हैं। सदन में उनकी उपस्थिति भी कम रहती है। एक कालेज विद्यार्थी को 75 प्रतिशत उपस्थिति देना आवश्यक है अन्यथा परीक्षा के लिए अयोग्य माना जाता है, पर इनकी उपस्थिति पांच प्रतिशत भी रहे तो ये माननीय सांसद व विधायक हैं। पूरा वेतन भत्ता लेते हैं। इनसे प्रश्न करने वाला कोई नहीं, क्योंकि ये जनता बेचारी के वोट लेकर वीआईपी हो गए। इसलिए अगर लोकतंत्र को स्वस्थ बनाना है तो जनता को भी ऐसे चुनावी उम्मीदवारों का विरोध करना चाहिए जो फसली बटेरे ज्यादा हैं, जनप्रतिनिधि नहीं। जो चार-चार सीटों पर चुनाव लड़ते हैं और कभी भी अपने चुनाव क्षेत्र से वफादारी नहीं निभाते। जनता को चाहिए कि जागरूक होकर ऐसे चुनावी खिलाडिय़ों को नकार दे जो जनप्रतिनिधि बनने के लिए नहीं, अपितु माननीय और वीआईपी बनने के लिए चुनाव लड़ते हैं।
 

आलेख: प्रलोभनों-लुभावने वादों की राजनीति- शमीम शर्मा

आलेख: प्रलोभनों-लुभावने वादों की राजनीति- शमीम शर्मा

अब तक तो यह सुनते आये थे कि पिंजरे में रोटी के टुकड़े की जगह पनीर का टुकड़ा लटकाने पर चूहा धीमे से पूछता था— इलेक्शन आ गये हैं क्या? अब वह सवाल दागता है कि सिर्फ पनीर से काम नहीं चलेगा। उनके हाथ में लिस्टें हैं और जुबान में चुनौती है कि हमारा अमुक काम करवाओ तो इलेक्शन में आगे बढ़ो वरना अपना बिस्तरा-बोरिया समेट लो।
वाह! वाह! वाह! चूहे सीना चौड़ा करना और सवाल दागना सीख गये हैं।
पनीर का लालच देने वाले अब लैपटॉप, स्कूटी देने की बातें करते हैं। मुफ्त के बिजली-पानी देने के वादों से जनता को ललचाते हैं। दो-चार रुपये किलो के भाव से चीनी-दाल और चावल का लालच देना एक तरह से वोटों की खरीद-फरोख्त ही तो है। लाखों-करोड़ रुपयों की कर्जा माफी क्या खुल्लम-खुल्ला रिश्वत-बांट नहीं है?
दाल-रोटी हमारे गरीब मुल्क में करोड़ों लोगों के लिये बहुत बड़ा सवाल है पर लालच देकर किसी को अपनी आत्मा गिरवी रखने पर मजबूर करना गरीबी का उपहास नहीं तो और क्या है?
चुनावों की तारीख घोषित होने पर एक मनचले का कहना है कि अब पता चलेगा कि मोहल्ले में कौन-सी लड़की 18 साल की हो गई है। चौरासी लाख योनियों में भटकने के बाद वोट डालने का अधिकार मिलता है। वोट डालने के बाद उंगली पर लगा स्याही का दाग इस बात का संकेत है कि जिस तरह स्याही का दाग कई दिन तक नहीं जाता वैसे ही दागदार नेता भी जल्दी से पिंड नहीं छोड़ता, अत: दागदार की बजाय ध्यान से शानदार को चुनें। भोली-भाली जनता नेताओं की चिकनी-चुपड़ी बातों में आकर अपना वही हाल कर लेती है जो मुंडेर पर बैठे उस कौए का हुआ था, जिसके मुंह में एक रोटी का टुकड़ा था। नीचे बैठी चालाक लोमड़ी उससे बार-बार कहने लगी कि तुम्हारी आवाज बहुत मीठी है, एक गाना सुनाओ न। बेचारे कौए ने लोमड़ी की बातों में आकर जैसे ही चोंच खोली कि चोंच में पकड़ी रोटी से भी गया। अपने देश का चुनाव सिस्टम एक भूलभुलैया है। चुपड़ी लेने के चक्कर में अपनी रूखी-सूखी भी जाने का डर है। इसलिये बुजुर्गों की नसीहत है कि किसी के लालच में न आयें और जो लालच देने की चेष्टा करे उसे दिन में तारे गिनवा दें।
नोट: उपरोक्त लेख लेखक के निजी विचार है.
 

आलेख: त्योहारों का मतलब सिर्फ खरीदारी- आलोक पुराणिक

आलेख: त्योहारों का मतलब सिर्फ खरीदारी- आलोक पुराणिक

करवा चौथ निकल गया जी, दीवाली आने वाली है।
करवा चौथ पर क्या करना चाहिए था जी शॉपिंग, ओके।
दीवाली से पहले क्या करना चाहिए-वही शॉपिंग, ओके।
ऐन दीवाली के दिन क्या करना चाहिए, जी शॉपिंग।
पर दीवाली के दिन तो इतनी भीड़ होती है बाजारों में।
तो ऑनलाइन शॉपिंग करो जी फ्लिपकार्ट, एमेजन काहे के लिए हैं।
दीवाली के बाद क्या करना चाहिए।
बताया न, शॉपिंग शॉपिंग शॉपिंग।
तो क्या त्योहारों का मतलब शॉपिंग ही होता है।
जी बिल्कुल शॉपिंग मतलब त्योहार। त्योहार मतलब शॉपिंग, सिंपल इसमें ज्यादा दिमाग क्या लगाना। शॉपिंग में दिमाग का इस्तेमाल घातक होता है।
ओके दीवाली के बहुत दिनों बाद क्या करना चाहिए।
जी शॉपिंग, वही शॉपिंग, फिर शॉपिंग, फिर फिर शॉपिंग। इधर शॉपिंग उधर शॉपिंग।
उफ्फ! शॉपिंग के अलावा और कुछ न कर सकते क्या।
जी बिल्कुल कर सकते हैं, शॉपिंग के अलावा आप शॉपिंग की तैयारी कर सकते हैं।
उफ्फ! शॉपिंग के बाद हम कुछ न कर सकते हैं।
जी बिल्कुल कर सकते हैं, शॉपिंग के बाद हम यह प्लान कर सकते हैं कि अभी क्या क्या खरीदना बाकी है।
हे भगवान! शॉपिंग शॉपिंग शॉपिंग, लो साल खत्म हो लेगा। शॉपिंग ही करते रह जायेंगे क्या।
न न न अगले साल की शुरुआत भी शॉपिंग से कीजिये, हैप्पी न्यू ईयर शॉपिंग। ये शॉपिंग, वो शॉपिंग, शॉपिंग ही शॉपिंग दे दनादन।
इतने त्योहार पर्वों का जिक्र हुआ, और कोई बात ही न हुई, उनका क्या महत्व है। उनका इतिहास क्या है, यह बातें तो कोई करता ही नहीं।
अमिताभ बच्चन बताते हैं कि खरीदिये, खरीदिये, त्योहार पर ये खरीदिये, वो खरीदिये। खरीदते ही जाइए। खरीदना ही जीवन है।
आप करवा चौथ का, दीवाली का आध्यात्मिक महत्व बतायें।
आध्यात्मिक महत्व यह है कि इन त्योहारों पर खूब खरीदिये दे दनादन। फिर उन सारे आइटमों को कुछ दिन बाद त्याग दीजिये, जिन्होंने त्यागा उन्होंने ही भोगा फिर से नया आइटम। अभी आपने लेटेस्ट फोन खऱीदा किसी कंपनी का, एक हफ्ते में त्याग दीजिये उसे, बिल्कुल। फिर उसी कंपनी का नया मोबाइल ले आइये, आपका दिल लगा रहेगा।
ओफ्फो तो दिल को यह न समझायें कि छोड़ो क्या रखा नये-नये आइटमों में। संतोष करना चाहिए।
संतोष क्या होता है। संतोष तो सत्तर के दशक की किसी फिल्म का नाम लगता है। क्यों चाहिए संतोष। आपने संतोष कर लिया, तो आफत हो जायेगी। फिर मोबाइल फोन कंपनियां कैसे चलेंगी। सोचिये। न न न न, संतोष बिल्कुल नहीं चाहिए। फाइन कर देना चाहिए हर उस आदमी पर जो संतोष की बात करे, न न न।
कमाल है, पैसे कहां से आयेंगे खरीदने के लिए।
खर्च कर मारिये, खरीद मारिये-ये सलाह देने वाले काश! यह भी बतायें कि कमायें कैसे।
जी ऐसे छोटे-मोटे मुद्दों पर ध्यान न देते वो, बड़े मुद्दों पर ध्यान देते हैं-खरीदिये खरीदिये।
 

गांधी जयंती विशेष: चीन के रास्ते जापान से आए थे बापू के तीनों बंदर, पढ़ें उनके हर दिलचस्प किस्से

गांधी जयंती विशेष: चीन के रास्ते जापान से आए थे बापू के तीनों बंदर, पढ़ें उनके हर दिलचस्प किस्से

गांधी जी के तीन बंदर अब अपने आप में एक कहावत बन चुके हैं। महात्मा गांधी के तीन विचारों को दर्शाने वाले ये बंदर बताते हैं कि हर व्यक्ति को बुराई से दूर रहना चाहिए। न बुरा देखा जाए, न बुरा कहा जाए और न बुरा सुना ही जाए। राष्ट्रपिता के इन विचारों का वैज्ञानिक आधार भी है जो बताता है कि गलत विचार कहना, सुनना और बोलना किस तरह हमारी शारीरिक और मानसिक सेहत पर असर करते हैं।
बुरा मत देखो : नकारात्मक कंटेंट देखने वालों का व्यवहार बदलने लगता
हंगरी के एक प्रोफेसर जॉर्ज गर्बनर ने 1960 में कल्टीवेशन थ्योरी दी थी। इसमें बताया गया कि व्यावसायिक टीवी कार्यक्रमों में दिखाया जाने वाला सामाजिक व्यवहार किस तरह लोगों के दिलोदिमाग पर असर करता है। ऐसे लोग मीन वर्ल्ड सिंड्रोम के शिकार हो जाते हैं और उन्हें दुनिया में दुख, षड्यंत्र, अनहोनी की आशंकाएं ज्यादा दिखने लगती हैं। उदाहरण के लिए, धारावाहिक देखने वाले लोगों की मानसिकता महिलाओं के प्रति ठीक वैसी हो जाती है, जैसे धारावाहिकों में उन्हें चित्रित किया जाता है।
बुरा मत बोलो : कड़वे बोल अवसाद लाते, इम्युनिटी घटाते
बोलने का सीधा संबंध सोचने से है, जैसे व्यक्ति बोलता है, उसका असर उनके दिमाग और शरीर पर होता है। एक बड़े वैज्ञानिक अध्ययन से पता लगा कि जब लोग खुद में ही नकारात्मकता से बात करते (सेल्फ टॉक) हैं तो मानसिक प्रक्रियाएं प्रभावित होती हैं। ब्राजील के रियो डी जेनेरियो में स्थित संघीय विश्वविद्यालय के शोध में पाया गया कि सामाजिक व पारिस्थितिकीय कारकों की वजह से व्यक्ति की मानसिक प्रक्रिया प्रभावित होती है, जो अंतत: मानसिक अबसाद में पहुंचा देती है। इसके अलावा, गुस्सा, कड़वे बोल व अन्य उत्तेजित विचारों से फेफड़े तेजी से सांस भरने लगते हैं और मांसपेशियां स्वत: चलने लगती हैं। इससे शरीर का संतुलन बिगड़ता है जो प्रतिरक्षा पर असर करता है।
बुरा मत सुनो : बेहतर व्यवहार के लिए सुनने की सीमा तय करनी होगी
हार्वर्ड बिजनेस समीक्षा के मुताबिक, सुनने की क्षमता आपके व्यक्तिगत ही नहीं पेशेवर व्यवहार के लिए भी बेहद जरूरी है।पर आपको जो कुछ भी सुन रहे हैं, उसे सिद्धांतों के आधार पर तोलना पड़ेगा और गैर - सिद्धांतिक विचारों से दूरी बनानी पड़ेगी। कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के शोधार्थी बिलियम क्रिस्ट का कहना है कि सुनने की क्षमता ही सामाजिक संबंध स्थापित करने की पहली शर्त है इसलिए व्यक्ति को दूसरों की बात बहुत धैर्य से सुननी चाहिए मगर उसे यह चुनाव भी करना होगा कि वह किस तरह के विचारों के जरिए यह संबंध स्थापित करना चाहता है क्योंकि यह सब उसके सामाजिक और मानसिक व्यवहार को प्रभावित करता है।
इस तरह बापू को मिले तीन बंदर
माना जाता है कि बापू के यह तीन बंदर चीन से आए थे। एक रोज एक प्रतिनिधिमंडल गांधी जी से मिलने आया, मुलाकात के बाद प्रतिनिधिमंडल ने गांधी जी को भेंट स्वरूप तीन बंदरों का सेट दिया। गांधीजी इसे देखकर काफी खुश हुए। उन्होंने इसे अपने पास जिंदगी भर संभाल कर रखा। इस तरह ये तीन बंदर उनके नाम के साथ हमेशा के लिए जुड़ गए। गांधी जी के तीन बंदर को अलग-अलग नाम से जाना जाता है।
1. मिजारू बंदर- दोनों हाथों से अपनी दोनों आंखें बंद रखा यह बंदर बुरा न देखने का संदेश देता है।
2. किकाजारू बंद- अपने दोनों हाथों से दोनों कानों को बंद रखा यह बंदर बुरा न सुनने की बात कहता है।
3. इवाजारू बंदर- अपने दोनों हाथों से अपना मुंह बंद करने वाले बंदर का संदेश बुरा न बोलने से जुड़ा है।
बुद्धिमान बंदरों का जापान से नाता
तीन संदेश देते तीन बंदरों को जापानी संस्कृति में शिंटो संप्रदाय द्वारा काफी सम्मान दिया जाता है। माना जाता है कि ये बंदर चीनी दार्शनिक कन्फ्यूशियस के थे और आठवीं शताब्दी में ये चीन से जापान पहुंचे। उस वक्त जापान में शिंटो संप्रदाय का बोलबाला था। जापान में इन्हें ''बुद्धिमान बंदर'' माना जाता है और इन्हें यूनेस्को ने अपनी वर्ल्ड हेरिटेज लिस्ट में शामिल किया है।
 

लेख: रोटी का जिक्र और मेवे का फिक्र- सहीराम

लेख: रोटी का जिक्र और मेवे का फिक्र- सहीराम

अपने यहां अचानक यह चिंता सामने आने लगी है कि अफगानिस्तान में आयी अस्थिरता से मेवे महंगे हो जाएंगे। बेचारे अफगानी तो गोलियां खा रहे हैं और आपको मेवे खाने की चिंता हो रही है। उन्हें चिंता हो रही है कि तालिबान से कैसे बचें और आपको चिंता हो रही है कि मेवे कैसे मिलें। भैया अफगानिस्तान के मेवे तो न रूसी खा सके और न अमेरिकी। मेवों के इंतजार में बीस साल वहां रूसी पड़े रहे और बीस साल अमेरिकी। चालीस साल तो यूं ही गुजर गए। फिर कोई पांच-छह साल तो अफगानियों ने तालिबान की बंदूक के साये में भी गुजारे ही हैं। वे जान की चिंता करें कि मेवों की चिंता करें।
मेवे खाना इतना आसान नहीं होता। खुद वहां की जनता नहीं खा पा रही और आपको चिंता सता रही है कि मेवे महंगे हो जाएंगे। वैसे भी गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर के काबुली वाले अब अपने यहां नहीं आते। अब तो अपने यहां अफगानी शरणार्थी आते हैं। अलबत्ता बेटियों के लिए उनके दिल भी उतने ही तड़पते हैं, जितना काबुली वाले का दिल तड़पता था। वैसे भी अब अफगानिस्तान से मेवे आने का इंतजार कौन करता है। अब कहां अफगानिस्तान के मेवे मशहूर रह गए, अब तो वहां की अफीम मशहूर है, हेरोइन मशहूर है। दुनिया वालों की चिंता अब यह है कि तालिबान के आ जाने के बाद वहां अफीम की खेती बढ़ जाएगी और दुनिया को हेरोइन से पाट दिया जाएगा।
फिर भी अपने यहां चिंता यह है कि अफगानिस्तान में आयी अस्थिरता से मेवे महंगे हो जाएंगे। अरे भैया यहां रोटी महंगी हो रही है, उसकी चिंता कर लो यार। सरसों के तेल की कीमतें बाबा रामदेव के बिजनेस की तरह छलांग लगा रही हैं। उस सरसों के तेल की महंगाई की चिंता कोई नहीं कर रहा। बाजार में सब्जी खरीदने जाओ तो घीया, टिंडा और तौरी जैसी मौसमी सब्जियां तक पचास रुपए किलो से कम नहीं मिलती। इसकी कोई चिंता नहीं कर रहा।
सब्जी पैदा करने वाले किसान की सब्जी मंडी में कौडिय़ों के भाव बिकती है और तंग आकर वह उन्हें सड़क पर फेंक देता है या खेतों में सडऩे के लिए छोड़ देता है। भाई किसान की चिंता तो मत करो क्योंकि किसान की चिंता करने का मतलब आज सरकार का विरोध करना हो गया है और सरकार का विरोध करने का मतलब सिर फुड़वाना हो गया है। लेकिन महंगाई की चिंता तो कर लो। सरकारी कंपनियां तो सस्ते में बिक रही हैं और रोटी महंगी हो रही है। रोटी के लिए अन्न उगाने वाले की जान सस्ती है और रोटी खाने वाले की जान भी सस्ती है, लेकिन रोटी महंगी है।
लेकिन चिंता यह सता रही है कि अफगानिस्तान में आयी अस्थिरता से मेवे महंगे हो जाएंगे। समस्या यही है कि मेवे खाने वालों की चिंता की तो चिंता कर ली जाती जाएगी, पर रोटी खाने वाले की चिंता को चिंता नहीं माना जाएगा।
नोट: उपरोक्त लेख लेखक के अपने व्यक्तिगत विचार है.
 

9/11 वर्ल्ड ट्रेड सेंटर हमले को 20 साल, लेकिन दर्द आज भी है....

9/11 वर्ल्ड ट्रेड सेंटर हमले को 20 साल, लेकिन दर्द आज भी है....

9/11 हमले का दर्द आज भी कई लोग झेल रहे हैं। दुनिया की सबसे ताकतवर देश में शुमार
अमेरिका पर 9/11 में हुए हमले ने समूची दुनिया को हिला कर रख दिया था। इस आतंकी हमले में करीब 3000 लोगों की मौत हुई। 9 /11 हमले में 19 आतंकियों ने 4 प्लेन हाईजैक किए थे। जिसमें से एक मिशन
फैल हो गया था। इस भयावह हमले के पीछे अलकायदा सरगना ओसामा बिन लादेन की साजिश थी। जिसका बदला अमेरिका ने लादेन को उसके घर में घुसकर सितंबर 2011 में मारा था। 20 साल बाद भी 9/11 हमले का प्रभाव घायल हुए लोगों में सामने आ रहा है। आइए जानते हैं इस हमले जुड़े तथ्य के बारे में –
- जब यह घटना घटी थी तब जॉर्ज बुश अमेरिका के राष्ट्रपति थे। उस दौरान बुश ने कहा था, ‘हम युद्ध के मैदान में हैं। जब हम उन गुनहगारों को पकड़ लेंगे तो वो मुझे पसंद नहीं आएंगे। इन्हें इसकी कीमत चुकाना होगी।‘

- फायर कर्मियों को वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर आग को काबू पाने में करीब 100 दिन लगे थे।

- हादसे में सिर्फ 290 लोगों के शव को आराम और सही सलामत निकाल सकें।

- ट्विन टावर को बनाने में करीब 60 लोगों की जान गई थी।

- दोनों टॉवर में करीब 110 - 110 मंजिलें थीं। हर दिन 239 लिफट चलती थी।

- यह जानकर आश्चर्य होगा कि इस हमले में करीब 90 देशों से अधिक नागरिकों की जान गई।

- ट्विन टावर के ध्वस्त होने के बाद करीब 18 लाख टन मलबा इकट्ठा हो गया था। जिसे साफ करने में करीब 75 करोड़ डॉलर का खर्च आया था।

- 11 सितंबर 2001 में हुए हमले के दौरान मौत से ज्यादा कई लोग घायल हुए थे और बीमारी की चपेट में आ गए थे। हमले के बाद तुरंत राष्ट्रपति ने घायलों, पीड़ितों मृतकों के परिवारों को मुआवजा राशि देने की घोषणा की थी। लेकिन 7 सितंबर 2021 को एक रिपोर्ट जारी की गई। जिसमें 20 साल बाद भी जांच जारी है। और दो पीड़ितों को ढूंढा गया है। हालांकि उनकी पहचान उजागर नहीं की गई है।

- 9/11 हमले के बाद कैंसर पीड़ितों को कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है।

 

आलेख: सरकार क्यों लीज पर देने जा रही है संपत्ति- चंद्रभूषण

आलेख: सरकार क्यों लीज पर देने जा रही है संपत्ति- चंद्रभूषण

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने सरकारी संसाधनों को लीज पर देकर अगले चार वर्षों में छह लाख करोड़ रुपये जुटाने की घोषणा की है। नैशनल मॉनिटाइजेशन पाइपलाइन (एनएमपी) नाम की यह योजना इसी साल लाने की बात उन्होंने इस बार के अपने बजट भाषण में कही थी। एनएमपी का सीधा संबंध पिछले साल घोषित नैशनल इन्फ्रास्ट्रक्चर पाइपलाइन (एनआईपी) से है। एनआईपी सौ लाख करोड़ रुपये से ज्यादा की एक बृहद इन्फ्रास्ट्रचर योजना है, जिसको अभी 111 लाख करोड़ रुपये की बताया जा रहा है। दरअसल, मोदी सरकार बहुत बड़े आंकड़ों के जरिये दुनिया को यह संकेत देना चाहती है कि भारत में इन्फ्रास्ट्रक्चर के स्तर पर कुछ वैसा ही घटित हो रहा है, जैसा 1930 के दशक में अमेरिका में हुआ था, या फिर पिछले तीसेक वर्षों में चीन में हुआ है।
क्या पैसा आएगा?
इसके लिए 100 करोड़ रुपये से ऊपर की 7320 ढांचागत परियोजनाओं को एक ही सूची में डाल दिया गया है और इनको अमल में उतारने का काम केंद्र सरकार (39 प्रतिशत), राज्य सरकारों (40 प्रतिशत) और प्राइवेट सेक्टर (21 प्रतिशत) को मिलकर करना है। नैशनल मॉनिटाइजेशन पाइपलाइन इसी के लिए पैसा जुटाने की एक कवायद है। यह योजना अभी घोषित तो हो गई है लेकिन इससे पैसे कितने आएंगे, इसका अंदाजा लगाना मुश्किल है। एनआईपी के लिए सरकारी धन एनएमपी के अलावा सरकारी खजाने और विनिवेश से आना है। इसमें सरकारी खजाने का भरना या खाली रहना अर्थव्यवस्था की गति और उससे होने वाले टैक्सेशन पर निर्भर करता है। लेकिन एनएमपी और विनिवेश से, यानी सरकारी परिसंपत्तियों को निजी उपयोग के लिए देने पर आने वाले पैसों को लेकर कुछ समझ बनानी हो तो पिछले साल के एक आंकड़े पर गौर कर सकते हैं।
सन 2020 के बजट भाषण में वित्त मंत्री ने विनिवेश के जरिये अगले (अभी पिछले) वित्त वर्ष में 2 लाख 10 हजार करोड़ रुपये जुटाने की घोषणा की थी। लेकिन वास्तव में खींच-तानकर यह रकम 19,499 करोड़ रुपये तक पहुंच पाई, जो लक्ष्य का बमुश्किल 9 फीसदी था। इस हकीकत को ध्यान में रखकर ही मौजूदा वित्त वर्ष में विनिवेश का लक्ष्य 1 लाख 75 हजार करोड़ रखा गया। हालात तब से अब तक कुछ सुधरे जरूर हैं, पर इतने नहीं कि इस वित्त वर्ष के बचे हुए सात महीनों में एनएमपी के मद में 88 हजार करोड़ रुपये और जुटाए जा सकें।
तो एक मामला नैशनल मॉनिटाइजेशन पाइपलाइन से जुड़े लक्ष्यों के यथार्थपरक होने से जुड़ा है। लेकिन लोगों में चर्चा इस बात की ज्यादा है कि सरकार इतने लंबे समय में खड़े किए गए महत्वपूर्ण संसाधनों को औने-पौने किसी को भी बेच देने पर आमादा है। विनिवेश के मामले में ऐसा हमने बार-बार होते देखा है। मोदी सरकार इस किस्से को ज्यादा तूल न पकडऩे देने को लेकर सतर्क है लिहाजा वित्त मंत्री ने अपनी प्रेस कॉन्फ्रेंस में जोर देकर कहा कि एनएमपी में ब्राउनफील्ड यानी पहले से खड़े संसाधन प्राइवेट सेक्टर को लीज पर दिए जाएंगे। उन्हें बेचा नहीं जाएगा, उनका स्वामित्व सरकार के ही पास बना रहेगा।
ये संसाधन कौन से हैं? सबसे ज्यादा सड़कें (कुल संभावित रकम का 27 प्रतिशत), फिर रेलवे (25 प्रतिशत), बिजली (15 प्रतिशत), तेल और गैस पाइपलाइनें (8 प्रतिशत) और टेलिकॉम (6 प्रतिशत)। बचे 19 प्रतिशत में हवाई अड्डे, बंदरगाह, गोदाम और स्पोर्ट्स स्टेडियम वगैरह शामिल हैं। ध्यान रहे, इन ढांचागत संसाधनों का काफी बड़ा हिस्सा पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप के तहत बिल्ड-ऑपरेट-ट्रांसफर की शर्तों से बंधा हुआ है। ऐसे मामलों में तो कोई लीज भी नहीं है फिर भी सारा कुछ बिल्ड-ऑपरेट में उलझा रह जाता है, ट्रांसफर की नौबत ही नहीं आती। एक छोटा सा उदाहरण दिल्ली और नोएडा को जोडऩे वाले एक पुल का ले लें।
इसे बनाने वाली कंपनी ने अपनी लागत और मुनाफा काफी पहले निकाल लिया, फिर नोएडा टोलब्रिज नाम से शेयर बाजारों में अपना रजिस्ट्रेशन भी करा लिया। सड़क और पुल का मालिकाना सौंपने की बात यूपी सरकार की ओर से ही आ सकती थी, लेकिन कंपनी ने उसी को मैनेज कर लिया था। साल दर साल उसकी टोल वसूली चलती जा रही थी। हारकर कुछ नागरिक मामले को अदालत में ले गए तो वहां भी मुकदमा लंबा खिंचने लगा। फिर एक दिन फैसला आ गया कि कंपनी अपनी वसूली पूरी कर चुकी है, अब वह अपना टोल हटा ले। उसके बाद भी कुछ समय तक टोल चलता रहा। फिर लोगों ने जमा होकर उसे हटवाया तो बात बनी।
मिट्टी के मोल संपत्ति
कोई नहीं जानता कि छह लाख करोड़ जुटाने के लिए सरकारी संसाधन जब लीज पर दिए जाएंगे तो यह लीज कितने साल की होगी। निश्चित रूप से यह अवधि काफी लंबी होगी क्योंकि ये संसाधन किसी प्राइवेट पार्टी को अभी की हालत में अतिरिक्त पैसे नहीं देने वाले। इन्हें प्रॉफिटेबल बनाने के लिए उसे इनके इर्दगिर्द कुछ और ढांचे खड़े करने होंगे। मसलन, एक टोलदार सड़क से अतिरिक्त कमाई करने के लिए सड़क किनारे की जगहों का बेहतर उपयोग करना होगा- जैसे उन्हें ढाबों और मनोरंजन की जगहों के लिए सब-लीज पर देना। लेकिन ऐसे काम लंबी लीज की मांग करते हैं।
सरकारें संसाधनों का मालिकाना अपने हाथ में बने रहने की बात जरूर करती हैं लेकिन यह एक हवा-हवाई मामला ही हुआ करता है। एक जमीन को 99 साल की लीज पर देने के बाद उस पर अपने मालिकाने की बात आप पांच पीढ़ी आगे के लिए कर रहे होते हैं, जब दुनिया कुछ की कुछ हो चुकी होगी। यहां सौदे को आकर्षक बनाने के लिए सरकार के पास अकेला रास्ता उसे सस्ते से सस्ता रखने का है। मसलन, 2.86 लाख किलोमीटर लंबे देशव्यापी ऑप्टिकल फाइबर नेटवर्क की लीज से 26,300 करोड़ आने की उम्मीद की गई है। यह रकम 9 लाख रुपये प्रति किलोमीटर से भी कम पड़ रही है, जो एक तरह से अपनी संपत्ति को मिट्टी के मोल निकाल देने जैसा ही है। देखें, कितना पैसा इससे जुटता है, कितनी नौकरियों की भरपाई हो पाती है।

 

छत्तीसगढ़ के वर्तमान राजनितिक हलचल पर आलेख... ”तो फैसला सुरक्षित है”

छत्तीसगढ़ के वर्तमान राजनितिक हलचल पर आलेख... ”तो फैसला सुरक्षित है”

दिल्ली से छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल सहित उनके मंत्री, विधायक, महापौर, जिला अध्यक्ष विजेता की तरह लौट आए हैं। ऊपरी तौर पर ऐसा लगता है कि छत्तीसगढ़ में नेतृत्व की समस्या का समाधान हो गया है लेकिन दिल्ली से लौटे स्वास्थ्य मंत्री टीएस सिंहदेव के इस बयान से कि फैसला आलाकमान के पास सुरक्षित है,साफ हो जाता है कि दिल्ली में राहुल गांधी के साथ बातचीत के बाद जो फैसला होना था, वह नहीं हुआ है। वह किसी और समय के लिए टाल दिया गया है। टीएस सिंहदेव के मुताबिक इसमें वक्त लगेगा। सवाल उठता है कि यह फैसला क्यों टाल दिया गया है। नेशनल लेवल पर पंजाब का मामला पहले ही सुर्खियों में है। वहां नवजोत सिध्दू को कांग्रेस अध्यक्ष बनाकर माना गया कि यह सही फैसला है, समस्या का समाधान हो गया लेकिन अब पता चल रहा है कि समस्या का समाधान नहीं हुआ है। राजस्थान की समस्या का समाधान भी नहीं हुआ है। ऐसे में छत्तीसगढ़ के मामले में कोई फैसला जल्दी में लिया नहीं जा सकता। छत्तीसगढ़ में सबसे मजबूत सरकार है, मुख्यमंत्री भूपेश बघेल बहुत अच्छा काम कर रहे हैं। उन्होंने साबित किया है कि विधायकों का बहुमत उनके साथ है। वह सबसे लोकप्रिय नेता हैं। ऐसे नेता को हटाना नई मुसीबत मोल लेने के समान होता। इसलिए छत्तीसगढ़ में यथास्थिति बनाई रखी गई है। मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने राहुल गांधी को छत्तीसगढ़ माडल को देखने के लिए बुलाया है। यानी उन्होंने राहुल गांधी को उनका काम देखने के लिए बुलाया है। मुख्यमंत्री का काम देखकर हो सकता है कि राहुल गांधी छत्तीसगढ़ में नेतृत्व परिवर्तन की सोचे नहीं। टीएस सिंहदेव ऐसे नेता नहीं है जो आलाकमान की बात न माने। उन्होंने तो पहले ही कहा है कि आलाकमान उनके विषय में जो फैसला करेगा, वह उन्हें मंजूर होगा। भूपेश बघेल ने भी यही कहा है कि आलाकमान का फैसला वह भी मानेंगे। भूपेश बघेल सिर्फ इतना चाहते हैं कि उनके विषय में कोई फैसला करने से पहले राहुल गांधी छत्तीसगढ़ आकर उनका काम देख लें। अभी राहुल गांधी छत्तीसगढ़ के दौर पर कब आऐंगे,यह तय नहीं हुआ है। यह अगले महीने हो सकता है।राहुल गांधी एक बार छत्तीसगढ़ में कुछ दिन रहकर भूपेश बघेल के नेतृत्व में हुए काम को खुद देख लेंगे तो उनके लिए फैसला करना आसान होगा कि यहां के लिए मुखिया के तौर पर भूपेश बघेल ठीक है या कोई और। लोकल व नेशनल मीडिया के अ्रनुसार तो भूपेश बघेल को हटाना कांग्रेस नेतृत्व की बड़ी गलती होगी। फिर भी कांग्रेस में आलाकमान कोई भी फैसला ले सकता है, उनके फैसले को पार्टी के भीतर कोई चुनौती नहीं दे सकता.आलाकमान जो भी फैसला करेगा, उसे सबको मानना ही होगा। 

मुख्यमंत्री के जन्म दिवस 23 अगस्त पर विशेष-लेख : मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल के विजन ने दिया विकास का यूनिक मॉडल

मुख्यमंत्री के जन्म दिवस 23 अगस्त पर विशेष-लेख : मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल के विजन ने दिया विकास का यूनिक मॉडल

मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल का मानना है कि भारत के नक्शे में सिर्फ एक अलग राज्य के रूप में एक भौगोलिक क्षेत्र की मांग नहीं थी, बल्कि इसके पीछे सदियों की पीड़ा थी। ये छत्तीसगढ़िया सपनों और आकांक्षाओं को पूरा करने की मांग थी। आम छत्तीसगढ़िया की तासीर और उनकी अपेक्षाएं बिलकुल अलग हैं, बरसो की उपेक्षा और तिरस्कार, पिछड़ेपन का दंश के बावजूद अपनी आस्मिता और स्वामिमान को बचाकर चलना यहां की खासियत है। मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल को इन्हें समझने में जरा भी देर नहीं लगी। उन्होंने छत्तीसगढ़ में न केवल सांस्कृतिक उत्थान के लिए छत्तीसगढ़ के त्यौहारों को महत्व दिया बल्कि छत्तीसगढ़ के किसानों, मजदूरों सहित सभी वर्गाे के हितों को और अधिक मजबूत करने के लिए न्याय योजनाओं की श्रृखला शुरू की। उनके विकास के छत्त्ीसगढ मॉडल में है माटी की सौंधी महक।
मुख्यमंत्री श्री बघेल के विकास के छत्तीसगढ़ माडल में आवश्यक अधोसंरचना विकास के साथ-साथ लोगों के सामाजिक-आर्थिक विकास पर ज्यादा जोर दिया जा रहा है, विकास का संतुलित स्परूप ही इस मॉडल की विशेषता है। उन्होंने आम छत्तीसगढ़िया की आखों में खुशहली और उनके चेहरे चमक में लाने के लक्ष्य को लेकर सरकार बनते ही कई ऐतिहासिक फैसले लिए। उन्होंने बरसों से छत्तीसगढ़ के साथ हुए अन्याय को न्याय योजनाओं के जरिए न्याय देने की पहल की है। चाहे ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाना हो, चाहे किसानों की कर्ज मुक्ति की बात हो या धान का वाजिब मूल्य देने की बात हो, अपने वायदे से वे कभी नहीं डिगे। उन्होंने हमेशा साहसिक फैसले लेकर छत्तीसगढ़ और छत्तीसगढ़िया दोनो के हितों की रक्षा की।
मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल के विकास के छत्तीसगढ़ी माडल में सबके लिए न्याय की अवधारणा है। यहां सिर्फ किसानों, मजदूरों, श्रमिकों के लिए ही न्याय नहीं है, न्याय की बयार, वनवासियों, और मध्यम वर्ग और उद्यमियों तक भी पहुंच रही है। हर वर्ग को राहत पहुंचाने के लिए अनेक फैसले लिए गए हैं। अन्नदाता किसानों का मान बढ़ाने के लिए न्याय की पहल की गई किसानों को उनकी उपज का वाजिब मूल्य दिलाने के लिए राजीव गांधी किसान न्याय योजना की शुरूआत हुई। मध्यम वर्ग को न्याय देने के लिए छोटे भू-खंडों के क्रय विक्रय के साथ ही भूमि के क्रय विक्रय की गाइड लाइन दरों में 30 प्रतिशत की कमी के साथ ही रियल इस्टेट सेक्टर को नया बूूम देने के लिए 75 लाख तक के मकानों की खरीदी पर पंजीयन राशि में छूट दी गई। वनवासियों को न्याय देने की पहल के तहत वनोपजों की संग्रहण मजदूरी तथा समर्थन मूल्य में वृद्धि के साथ समर्थन मूल्य पर खरीदी जाने वाली लघु वनोपजें 7 से बढ़ाकर 52 की गयी, जिसके कारण 13 लाख से अधिक आदिवासियों और वन आश्रित परिवारों को लाभ मिल रहा है। उद्योगों को राहत देने कई फैसले लिए गए।
पिछले ढाई सालों पर नजर डालें तो राज्य में विकास का एक अलग स्वरूप नजर आ रहा है। छत्तीसगढ़ विकास का मॉडल देश में एक अलग पहचान के रूप में स्थापित हो रहा है। इस विकास मॉडल के केन्द्र में गांव और किसान हैं। गांवों के गौरव को फिर से जगाने और हर हाथ को काम से जोड़ने का लक्ष्य रखकर सुराजी गांव योजना और गोधन न्याय योेेेजना, राजीव गांधी किसान न्याय योजना और राजीव गांधी भूमिहीन कृषि मजदूर न्याय योजना जैसी योजनाए प्रारंभ की गई है। लाख उत्पाद और मछली पालन को कृषि का दर्जा दिया गया। कोदो-कुटकी का समर्थन मूल्य घोषित करने के साथ ही लघु धान्य फसलों को बढ़ावा देने के लिए मिलेट मिशन भी शुरू करने का निर्णय लिया गया है।
मुख्यमंत्री श्री बघेल का कहना है कि नरवा-गरवा-घुरवा-बारी को छत्तीसगढ़ के सर्वांगीण विकास से, ग्रामीण अर्थव्यवस्था और अस्मिता से जोड़ना निश्चित तौर पर यह हमारी प्राथमिकता है। हम छत्तीसगढ़ के बुनियादी विकास की बात करते हैं और उसी दिशा में सारे प्रयास किए गए हैं, जिसके कारण आर्थिक मंदी और कोरोना जैसे संकट के दौर में भी, छत्तीसगढ़ की अर्थव्यवस्था अपनी पटरी पर बनी रही। जब देश और दुनिया के बाजारों में सन्नाटा था, तब छत्तीसगढ़ में ऑटो-मोबाइल से लेकर सराफा बाजार तक में उत्साह था। हमारे कल-कारखाने भी चलते रहे और गौठान भी। हमारे फैसले छत्तीसगढ़ को न सिर्फ तात्कालिक राहत देते हैं बल्कि दूरगामी महत्व के साथ, चौतरफा विकास के रास्ते खोलते हैं।
देश में पहली बार किसानों को विभिन्न फसलों के लिए इनपुट सब्सीडी देने की शुरूआत हुई। न्याय की यह बयार यहीं नहीं रूकी। गोधन न्याय योजना में इसे और बढ़ाया गया पशुपालकों और ग्रामीणों से गोबर खरीदी का काम शुरू हुआ। इस योजना से लगभग 76 प्रतिशत भूमिहीन कृषि मजदूर लाभान्वित हो रहे हैं। इससे इन वर्गाे को जहां आय का जरिया मिला वहीं गांव की महिला समूहों को वर्मी कम्पोस्ट और सुपर कम्पोस्ट से जोड़कर उन्हें भी स्वावलंबन से जोड़ा गया है। सुराजी गांव योजना में बनाए गए गौठानों में रूरल इंडस्ट्रियल पार्क की अवधारणा ने यहां ग्रामोद्योग और परम्परागत हस्तशिल्पियों के रोजगार का नया द्वार खोल दिया है। यहां प्रोसेसिंग प्लांट लगाने के साथ ही इन उत्पादों की मार्केटिंग के लिए व्यापारियों की भी मदद ली जा रही है।
ग्रामीण अर्थ व्यवस्था को मजबूत करने के लिए खेती किसानी के साथ-साथ कृषि आधारित उद्योंगों को प्राथमिकता दी जा रही है। सभी विकास खंडों में फूड पार्क बनाने का लक्ष्य रखा गया है। लघुवनोपज से वनवासियों को अधिक से अधिक लाभान्वित करने के लिए इन वनोपजों के वेल्यूएडिशन पर जोर दिया जा रहा है। कोरोना काल में देश में सबसे अधिक लघु वनोपज का समर्थन मूल्य पर संग्रहण छत्तीसगढ़ में किया गया। सुराजी गांव योजना में गौठानों में रूरल इंड्रस्ट्रीयल पार्क के जरिए ग्रामीणों और युवाओं को उत्पादक गतिविधियों से जोड़ा जा रहा है। गांवों में सिंचाई क्षमता के विकास के लिए नरवा कार्यक्रम हाथ में लिया गया है।
पिछले ढाई सालों में ऐसे अनेक छोटे-बड़े नवाचार हुए हैं, जिसका लाभ लोगों को मिल रहा है। डेनेक्स कपड़ा फैक्ट्री से लेकर वनोपज संग्रह में महिला स्व-सहायता की भूमिका, देवगुड़ी के विकास से लेकर स्थानीय उपजों के वेल्यूएडिशन तक बहुत से काम किए गए हैं। छत्तीसगढ़ के कोयले से अगर बिजली बनती है तो उसके लाभ में सीधे हिस्सेदारी आम जनता की होनी चाहिए। यही वजह है कि घरेलू बिजली उपभोक्ताओं के लिए बिजली बिल हाफ योजना लागू की गई है। इस योजना के तहत प्रदेश के 39 लाख से अधिक घरेलू उपभोक्ताओं को विगत 27 महीने में 1822 करोड़ रू. का लाभ मिल चुका है।
कोरोना से लड़ने के लिए प्रदेश में बड़े पैमाने पर स्वस्थ्य सुविधाएं विकसित की गयी। कोरोना काल में देश के 10 राज्यों को आक्सीजन की सप्लाई की गई। कांकेर, कोरबा तथा महासमुंद में नए मेडिकल कॉलेज भी खोलने की स्वीकृति दी गयी है। बस्तर में कुपोषण मुक्ति से लेकर मलेरिया उन्मूलन तक सफलता का नया कीर्तिमान रचा गया है। मुख्यमंत्री हाट-बाजार क्लीनिक योजना, मुख्यमंत्री स्लम स्वास्थ्य योजना और दाई-दीदी मोबाइल क्लीनिक जैसी पहल का लाभ लाखों लोगों को मिला है।
प्रदेश की नई औद्योगिक नीति में पिछड़े क्षेत्रों में औद्योगिकीकरण को प्रोत्साहित करने के प्रावधान किए गए हैं। हर विकासखंड में फूडपार्क स्थापित करने की दिशा में कार्यवाही शुरू की गयी है। गरीब परिवारों के बच्चों को अंगेजी माध्यम में शिक्षा देने के लिए स्वामी आत्मानंद इंग्लिश मीडियम स्कूल योजना शुरू की गई है, जिसके तहत 172 शालाओं का संचालन किया जा रहा है। कोरोना से जिन बच्चों के पालकों का निधन हुआ है, उन बच्चों को निःशुल्क शिक्षा देने के लिए ‘महतारी दुलार योजना’ शुरू की गई है।
प्रदेश के ग्रामीण अंचल, वन अंचल, बसाहटों, कस्बों और शहरों में रहने वाले लोगों का जीवन आसान बनाने के लिए आगामी दो वर्षों में 16 हजार करोड़ की लागत से सड़कों का नेटवर्क बनाया जा रहा है। सिर्फ एक साल 2020-21 में ‘प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना’ के तहत प्रदेश में 4 हजार 228 किलोमीटर सड़कें बनाई गईं। इतना काम पिछले किसी एक साल में नहीं हुआ। पूरे ढाई साल में 8 हजार 545 किलोमीटर सड़कें बनाई, जो एक बड़ी उपलब्धि है।